संघ प्रमुख का समरसता संदेश
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने शताब्दी वर्ष की ओर अग्रसर है। उसकी यह यात्रा समाजिक समरसता और संगठन पर आधारित है। इसका निरन्तर विस्तार हो रहा है। समाज के चिंतन और व्यवहार में व्यापक बदलाव आ रहा है। राष्ट्र को सर्वोच्च मानते हुए कार्य करने की प्रेरणा संघ के द्वारा मिल रही है। भेदभाव से मुक्त समाज का विचार प्रबल हो रहा है। संघ ने यह विलक्षण कार्य अत्यंत सहज और स्वाभाविक रूप में किया है। संघ की शाखाएं इसी भावभूमि पर चलती है। संघ संस्थाप डॉ हेडगेवार युगद्रष्टा थे। शाखाओं में आने मात्र से भेदभाव का विचार तिरोहित हो जाता है। इसीलिए कहा गया कि संघ को समझने के लिए शाखाओं में आना अपरिहार्य है। यहां समरसता का स्वाभाविक वातावरण होता है। यहां होने वाले कार्यक्रम या सहभोज आदि समरसता के अघोषित उपकरण हैं। इनसे लोगों के विचार मनोवैज्ञानिक रूप में समरसता के अनुकूल हो जाते हैं। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने धर्म संस्कृति सम्मेलन और डॉ हेडगेवार स्मारक समिति के कार्यक्रम में इसी को रेखांकित किया।
संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि संघ सम्पूर्ण समाज को अपना मानता है। एक दिन यह बढ़ते बढ़ते समाज का रूप ले लेगा। तब संघ का यह नाम भी हट जाएगा। हिंदू समाज ही संघ बन जाएगा। उन्होंने डॉ हेडगेवार स्मारक समिति के जिला कार्यालय का उद्घाटन किया। कहा कि यह कार्यालय हिंदू समाज का केंद्र है। यह समाज के सहयोग से निर्मित हुआ है। इसलिए यह समाज को ही समर्पित है। संघ का कार्य लोक संग्रह का कार्य है। इस शक्ति से सज्जन लोगों की सुरक्षा होगी धर्म की रक्षा के लिए इस शक्ति का उपयोग होगा।उन्होंने लोगों से देश के विकास और प्रगति के लिए एकजुट होकर काम करने का आह्वान किया। कहा कि यह नवनिर्मित कार्यालय केवल आरएसएस का नहीं बल्कि हिंदू समाज का केंद्र बनेगा। संघ का काम बढ़ रहा है और उसके शुभचिंतकों की संख्या बढ़ रही है। इसलिए विभिन्न स्थानों पर ऐसे कार्यालय बन रहे हैं। डॉ भागवत ने
शिकारपुरा स्थित गुर्जर भवन में आयोजित धर्म संस्कृति सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि, दुनिया जिसे रिलीजन कहती है, वह सब के अलग-अलग हैं, लेकिन हम जिस को धर्म कहते हैं, वह सारी दुनिया का एक ही है। धर्म सबका भारत के बाहर नहीं है, दूसरी भाषा में नहीं है, इसके पास जाने वाले शब्द अन्य भाषाओं में है, परिस्थितियां आती है। तब ऐसा करना पड़ता है। शिवाजी महाराज ने किया। पूरा जीवन लगा दिया धर्म रक्षण के लिए, अपने राज्य प्राप्ति के लिए नहीं किया। धर्म के लिए जान जोखिम में डालकर मृत्यु की सिद्धता रखकर काम किया। बादशाहत और सल्तनत को ठीक किया। उस समय की आवश्यकता, संतो और माताजी का आदेश को समझते हुए सिंहासन का स्वीकार किया।
संघ प्रमुख ने कहा आज कोई सुल्तान बादशाह नहीं है। हम जिनको चुनते हैं, वह राज्य करते हैं।ऐसे में अपने कर्तव्य और दायित्व को समझना भी आवश्यक है। समाज और देश के हित में कार्य करना चाहिए। संघ के माध्यम से इसी विचार के प्रति जन-मानस को जागरूक बनाया जाता है।शाखा जो एक घंटा सिखाती है,उसे शेष तेईस घंटे निभाना है। दुनिया का ध्यान भारत की तरफ है। भारत को गुरू बनाना चाहती है दुनिया, लेकिन भारत को इसके लिए तैयार होना पड़ेगा। इस दौरान उन्होंने जात-पात और पंथ की दीवारों को अलग करने की बात कही। मोहन भागवत ने वसुधैव कुटुंबम की तरफ इशारा किया। उन्होंने कहा कि धर्म छोड़ना नहीं है, मैं बड़ा बनूंगा सबको बड़ा बनाउंगा। मेरा लाभ होता है तो कम से कम मेरे गांव का लाभ होना चाहिए। यह विचार लेकर चलना है। सामाजिक समरसता का भाव रहना चाहिए। उपासना पद्धति में अंतर होने से भी इस विचार पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। भारत में तो प्राचीन काल से सभी मत पंथ व उपासना पद्धति को सम्मान दिया गया। सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः ही भारत की विचार दृष्टि है। निःस्वार्थ सेवा और सामाजिक समरसता भारत की विशेषता रही है। सेवा कार्य में कोई भेदभाव नहीं होता।दर्शन में किसी सम्प्रदाय से अलगाव को मान्यता नहीं दी गई। विविधता के बाद भी समाज एक है। भाषा,जाति, धर्म,खानपान में विविधता है। उनका उत्सव मनाने की आवश्यकता है। कुछ लोग विविधता की आड़ में समाज और देश को बांटने की कोशिश में जुटे रहते हैं लेकिन भारतीय चिंतन विविधता में भी एकत्व सन्देश देता है।हमारी संस्कृति का आचरण सद्भाव पर आधारित है। यह हिंदुओं तक सीमित नहीं है, बल्कि भारत में रहने वाले ईसाई और मुस्लिम परिवारों के भीतर भी यह भाव साफ देखा जा सकता है। एक सौ तीस करोड़ का समाज भारत माता का पुत्र है। हमारा बंधु है। क्रोध और अविवेक के कारण इसका लाभ लेने वाली अतिवादी ताकतों से सावधान रहना है। सेवा समरसता आज की आवश्यकता है। इस पर अमल होना चाहिए। इसी से श्रेष्ठ भारत की राह निर्मित होगी।वर्तमान परिस्थिति में आत्मसंयम और नियमों के पालन का भी महत्व है। समाज में सहयोग सद्भाव और समरसता का माहौल बनाना आवश्यक है। भारत ने दूसरे देशों की सहायता करता रहा है। क्योंकि यहीं हमारा विचार है।
मोहन भागवत ने कहा समस्त समाज की सर्वांगीण उन्नति ही हमारा एकमात्र लक्ष्य है। जब हिंदुत्व की बात आती है तो किसी अन्य पंथ के प्रति नफरत, कट्टरता या आतंक का विचार स्वतः समाप्त हो जाता है। तब वसुधैव कुटुंबकम व सर्वे भवन्तु सुखिनः का भाव ही जागृत होता है। भारत जब विश्व गुरु था,तब भी उसने किसी अन्य देश पर अपने विचार थोपने के प्रयास नहीं किये। भारत शक्तिशाली था, तब भी तलवार के बल पर किसी को अपना मत त्यागने को विवश नहीं किया। दुनिया की अन्य सभ्यताओं से तुलना करें तो भारत बिल्कुल अलग दिखाई देता है। जिसने सभी पंथों को सम्मान दिया। सभी के बीच बंधुत्व का विचार दिया। ऐसे में भारत को शक्ति संम्पन्न बनाने की बात होती है तो उसमें विश्व के कल्याण का विचार ही समाहित होता है। भारत की प्रकृति मूलतः एकात्म है और समग्र है। अर्थात भारत संपूर्ण विश्व में अस्तित्व की एकता को मानता है।
संघ प्रमुख कहते हैं समाज का आचरण शुद्ध होना चाहिए। इसके लिए जो व्यवस्था है उसमें ही धर्म की भी व्यवस्था है। धर्म में सत्य, अहिंसा, अस्तेय ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, स्वाध्याय, संतोष, तप को महत्व दिया गया। समरसता सद्भाव से देश का कल्याण होगा। हमारे संविधान के आधारभूत तत्व भी यही हैं। संविधान में उल्लेखित प्रस्तावना, नागरिक कर्तव्य, नागरिक अधिकार और नीति निर्देशक तत्व यही बताते हैं। जब भारत एवं भारत की संस्कृति के प्रति भक्ति जागती है व भारत के पूर्वजों की परंपरा के प्रति गौरव जागता है, तब सभी भेद तिरोहित हो जाते हैं। भारत ही एकमात्र देश है, जहाँ पर सबके सब लोग बहुत समय से एक साथ रहते आए हैं। सबसे अधिक सुखी मुसलमान भारत देश के ही हैं।