Sunday, May 5, 2024
उत्तर प्रदेश

वोटों का बिखराव ही विपक्ष की रणनीति, भाजपा को रोकने के लिए गठबंधन से परहेज करेंगे

लखनऊ। अगले लोकसभा चुनाव में वोटों का बिखराव ही विपक्षी दलों की मुख्य रणनीति होगी। भाजपा को रोकने के लिए प्रमुख दल गठबंधन से परहेज करेंगे। उनकी कोशिश है कि किसी भी दशा में धार्मिक ध्रुवीकरण न हो सके। कांग्रेस और सपा इसी दिशा में आगे बढ़ते दिख रहे हैं। बसपा तो विधानसभा चुनाव से पहले ही कांग्रेस से गठबंधन का प्रस्ताव ठुकरा चुकी है।
भाजपा ने जहां यूपी की सभी 80 सीटें जीतने का लक्ष्य लिया है, वहीं सपा उन्हें सभी 80 सीटों पर हराने का दावा कर रही है। दोनों के दावे उनके पक्ष में किसी बड़ी लहर से ही पूरे हो सकते हैं। भाजपा के हमदर्द जनवरी में अयोध्या में रामलला के भव्य मंदिर का निर्माण पूरा होने को बड़े अवसर के रूप में देख रहे हैं। विपक्ष भी सत्ताधारी दल की इस रणनीति को नजरअंदाज करने की भूल नहीं करना चाहता। सपा यादव और मुस्लिम मतों को अपना कोर आधार मानकर चल रही है। कश्यप समेत अन्य पिछड़ी जातियों में भी यथासंभव सेंध लगाने का प्रयास कर रही है। यहां तक कि कांशीराम की विरासत पर भी उसने अपना दावा कर दिया है। सपा अपने उस बयान से भी पीछे नहीं हटना चाहती, जिसमें कहा गया है कि देश के 10 फीसदी सामान्य वर्ग के लोग 60 फीसदी राष्ट्रीय संपत्ति पर काबिज हैं। यहां समझने की बात यह है कि पिछड़े और दलित मतदाताओं पर फोकस करने के बावजूद सपा ब्राह्मण समेत सामान्य वर्ग के नेताओं को अच्छी खासी संख्या में टिकट देगी। यह उनके रणकौशल का हिस्सा है, जो सपा के रणनीतिकारों के अनुसार धार्मिक आधार पर मतदाताओं को बंटने से रोकेगा। सपा यह भी चाहती है कि कांग्रेस स्वतंत्र रूप से लड़े, क्योंकि हार-जीत की कम मार्जिन वाली सीटों पर यह उसके लिए मददगार साबित हो सकता है। आम तौर पर कांग्रेस को जो भी मामूली मत मिलते हैं, वो सामान्य वर्ग के ही होते हैं, जो इधर भाजपा का आधार माने जाने लगा है।
कांग्रेस के रणनीतिकार भी छोटे दलों पर फोकस किए हुए हैं। बसपा से गठबंधन का राहुल गांधी का प्रस्ताव विधानसभा चुनाव से पहले ही मायावती ठुकरा चुकी हैं। प्रदेश में कांग्रेस को लेकर आम मतदाता फिलहाल ज्यादा आशांवित भी नहीं दिखाई देता।
मौजूदा परिस्थितियों में बसपा अकेले चलो की रणनीति पर भी आगे बढ़ती हुई दिख रही है। मायावती स्पष्ट कह चुकी हैं कि उनकी पार्टी अकेले ही लड़ेगी। हालांकि, खराब से खराब परिस्थितियों में भी बसपा के साथ यूपी का करीब 13 फीसदी मतदाता खड़ा ही दिखता है। जाहिर है ऐसे में बसपा को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
विपक्ष के रणनीतिकार मानते हैं कि पश्चिमी बंगाल, तमिलनाडु, तेलंगाना, बिहार और उड़ीसा में क्षेत्रीय शक्तियां ही भाजपा के लिए चुनौती दे रही हैं। आगे भी सफलता के लिए सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण को हर हाल में रोकने के उपाय अपनाने होंगे।
सपा और कांग्रेस यह अच्छी तरह से समझ चुके हैं कि धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण हुआ तो वे घाटे में रहेंगी। इसलिए दोनों पार्टियों के प्रमुख नेता धार्मिक मुद्दों पर बहुत ही सधी प्रतिक्रिया दे रहे हैं। अलबत्ता, स्वामी प्रसाद मौर्य के बयान सपा को कितना फायदा-नुकसान पहुंचाएंगे, यह पार्टी के लिए गहन विश्लेषण का विषय होना चाहिए। पिछले लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा का गठबंधन धार्मिक ध्रुवीकरण का आधार बना। उत्तर प्रदेश में गठबंधनों के ये अनुभव भविष्य के लिए इन दलों और खासकर सपा को सबक भी दे गए हैं।

 

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