Monday, May 20, 2024
परिचयप्रमोशनहोम

भगवान को अर्पण कर्म करने का महत्व

 

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (नवम अध्याय-18)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
प्रश्न-पूर्व श्लोक के कथनानुसार भगवदर्पण कर्म करने वाला मनुष्य अशुभ कर्म तो करता ही नहीं, फिर अशुभ के फल से छूटने की बात यहाँ कैसे कही गयी?
उत्तर-इस प्रकार के साधन में लगने से पहले, पूर्व के अनेक जन्मों में और इस जन्म में भी उसके द्वारा जितने अशुभ कर्म हुए हैं एवं ‘सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः’ के अनुसार विहित कर्मों के करने में जो आनुषंगिक दोष बन जाते हैं-उन सबसे भी कर्मों को भगवदर्पण करने वाला साधक मुक्त हो जाता है। यही भाव दिखलाने के लिये शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म फलों से मुक्त होने की बात कही गयी है।
प्रश्न-शुभ कर्मों का फल बन्धन कारक क्यों बतलाया गया?
उत्तर-पूर्व श्लोक के कथनानुसार जब समस्त शुभ कर्म भगवान् के अर्पण हो जाते हैं, तब तो उनका फल भगवत्प्राप्ति ही होता है परन्तु सकाम भाव से किये हुए शुभ कर्म इस लोक और परलोक में भोग रूप फल देने वाले होते हैं। जिन कर्मों का फल भोग प्राप्ति है, वे पुनर्जन्म में डालने वाले और भोगेच्छा तथा आसक्ति से भी बाँधने वाले होते हैं। इसलिये उनके फल को बन्धन कारक बतलाना ठीक ही है। परन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिये, परन्तु उनका कोई फल न चाहकर उन्हें भगवदर्पण करते रहना चाहिये। ऐसा करने पर उनका फल बन्धन कारक न होकर भगवत्प्राप्ति ही होगा।
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।। 29।
प्रश्न-‘मैं सब भूतों में सम हूँ’ तथा मेरा कोई अप्रिय या प्रिय नहीं है’-इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मैं ब्रह्मा से लेकर स्तम्बपर्यन्त समस्त प्राणियों में अन्तर्यामी रूप से समान भाव से व्याप्त हूँ। अतएव मेरा सबमें समभाव है, किसी में भी मेरा राग-द्वेष नहीं है। इसलिये वास्तव में मेरा कोई भी अप्रिय या प्रिय नहीं है।
प्रश्न-भक्ति से भगवान् को भजना क्या है तथा ‘वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ’ इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-भगवान् के साकार या निराकार-किसी भी रूप का श्रद्धा और प्रेमपूर्वक निरन्तर चिन्तन करना; उनके नाम, गुण, प्रभाव, महिमा और लीला-चरित्रों का श्रवण, मनन और कीर्तन करना; उनको नमस्कार करना; पत्र, पुष्प आदि यथेष्ट सामग्रियों के द्वारा उनकी प्रेमपूर्वक पूजा करना और अपने समस्त कर्म उनके समर्पण करना आदि सभी क्रियाओं का नाम भक्ति पूर्वक भगवान् को भजना है।
जो पुरुष इस प्रकार भगवान् को भजते हैं, भगवान् भी उनको वैसे ही भजते हैं। वे जैसे भगवान् को नहीं भूलते, वैसे ही भगवान् भी उनको नहीं भूल सकते-यही भाव दिखलाने के लिये भगवान् ने उनको अपने में बतलाया है। और उन भक्तों का विशुद्ध अन्तःकरण भगवत्प्रेम से परिपूर्ण हो जाता है, इससे उनके हृदय में भगवान् सदा-सर्वदा प्रत्यक्ष दीखने लगते हैं। यही भाव दिखलाने के लिये भगवान् ने अपने को उनमें बतलाया है।
अभिप्राय यह है कि इसी अध्याय के चौथे और पाँचवें श्लोकों के अनुसार भगवान् का निराकार रूप समस्त चराचर प्राणियों में व्याप्त और समस्त चराचर प्राणी उनमें सदा स्थित होने पर भी भगवान् का अपने भक्तों़ को अपने हृदय में विशेष रूप से धारण करना और उनके हृदय में स्वयं प्रत्यक्ष रूप से निवास करना भक्तों की भक्ति के कारण ही होता है। इसी से भगवान् ने दुर्वासा जी से कहा है-
साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं स्वह््म्।
मदन्य्त्ते न जानन्ति नाहं तेम्यो मनागपि।।
‘साधु (भक्त) मेरे हृदय हैं और मैं उनका हृदय हूँ। वे मेरे सिवा और किसी को नहीं जानते तथा मैं उनको छोड़कर और किसी को किंचित भी नहीं जानता।’
जैसे समभाव से सब जगह प्रकाश देने वाला सूर्य दर्पण आदि स्वच्छ पदार्थों में प्रतिबिम्बित होता है, काष्ठादि में नहीं होता, तथापि उसमें विषमता नहीं है, वैसे ही भगवान् भी भक्तों को मिलते हैं, दूसरों को नहीं मिलते-इसमें उनकी विषमता नहीं है, यह तो भक्ति की ही महिमा है।
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यसितो हिः सः।। 30।।
प्रश्न-‘अपि’ का प्रयोग किस अभिप्राय से किया गया है?
उत्तर-‘अपि’ के द्वारा भगवान् ने अपने समभाव का प्रतिपादन किया है। अभिप्राय यह है कि सदाचारी और साधारण पापियों का मेरा भजन करने से उद्धार हो जाय-इसमें तो कहना ही क्या है, भजन से अतिशय दुराचारी का भी उद्धार हो सकता है।
प्रश्न-‘चेत्’ अव्यय का प्रयोग यहाँ क्यों किया गया है?
उत्तर-‘चेत्’ अव्यय ‘यदि’ के अर्थ में है। इसका प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि प्रायः दुराचारी मनुष्यों की विषयों में और पापों में आसक्ति रहने के कारण वे मुझमें प्रेम करके मेरा भजन नहीं करते। तथापि किसी पूर्व शुभ संस्कार की जागृति, भगव˜वमय वातावरण, शास्त्र के अध्ययन और महात्मा पुरुषों के सत्संग से मेरे गुण, प्रभाव, महत्त्व और रहस्य का श्रवण करने से यदि कदाचित् दुराचारी मनुष्य की मुझमें श्रद्धा-भक्ति हो जाय और वह मेरा भजन करने लगे तो उसका भी उद्धार हो जाता है।
प्रश्न-‘सुदुराचारः’ पद कैसे मनुष्यों का वाचक है और उसका ‘अनन्यभाक्’ होकर भगवान् को भजना क्या है?
उत्तर-जिनके आचरण अत्यन्त दूषित हों, खान-पान और चाल-चलन भ्रष्ट हों, अपने स्वभाव, आसक्ति और बुरी आदत से विवश होने के कारण जो दुराचारों का त्याग न कर सकते हों, ऐसे मनुष्यों का वाचक यहाँ ‘सुदुराचारः’ पद है। ऐसे मनुष्यों का जो भगवान् के गुण, प्रभाव आदि के सुनने और पढ़ने से या अन्य किसी कारण से भगवान् को सर्वोत्तम समझ लेना और एकमात्र भगवान् का ही आश्रय लेकर अतिशय श्रद्धा-प्रेम पूर्वक उन्हीं को अपना इष्टदेव मान लेना है-यही उनका ‘अनन्यभक्त’ होना है। इस प्रकार भगवान् का भक्त बनकर जो उनके स्वरूप का चिन्तन करना, नाम, गुण, महिमा और प्रभाव का श्रवण, मनन और कीर्तन करना, उनको नमस्कार करना, पत्र-पुष्प आदि यथेष्ट वस्तु उनके अर्पण करके उनका पूजन करना तथा अपने किये हुए शुभ कर्मों को भगवान् के समर्पण करना है-यही अनन्यभक्त होकर भगवान् का भजन करना है।-क्रमशः

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