Wednesday, May 8, 2024
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आश्रम व्यवस्था का लक्ष्य भी ब्रह्म की प्राप्ति

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अष्टम अध्याय-06)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
प्रश्न-‘परम दिव्य पुरुष के क्या लक्षण हैं?
उत्तर-परम दिव्य पुरुष के लक्षणों का वर्णन आठवें और नवें श्लोकों में देखना चाहिये।
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरिन्त तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये।। 11।।
प्रश्न-‘वेदविद्ः’ पद का क्या भाव है?
उत्तर-जिससे परमात्मा का ज्ञान होता है, उसे वेद कहते हैं; यह वेद इस समय चार संहिताआंे के और ऐतरेयादि ब्राह्मण भाग के रूप में प्राप्त है। वेद के प्राण और वेद के आधार हैं-परब्रह्म परमात्मा वे ही वेद के तात्पर्य हैं। उस तात्पर्य को जो जानते हैं और जानकार उसे प्राप्त करने की अनवरत साधना करते हैं तथा अन्त में प्राप्त कर लेते हैं, वे ज्ञानी महात्मा पुरुष ही वेदविद-वेद के यथार्थ ज्ञाता हैं।
प्रश्न-‘वेद को जानने वाले जिसे अविनाशी बतलाते हैं’ इस वाक्य का क्या भाव है?
उत्तर-‘यत्’ पद से सच्चिदानंदधन परब्रह्म का निर्देश है। यहाँ यह भाव दिखलाया गया है कि वेद के जानने वाले ज्ञानी महात्मा पुरुष ही उस ब्रह्म के विषय में कुछ कह सकते हैं, इसमें अन्य लोगों का अधिकार नहीं है। वे महात्मा कहते हैं कि यह ‘अक्षर’ है अर्थात् यह एक ऐसा महान् तत्त्व है, जिसका किसी भी अवस्था में कभी भी किसी भी रूप में क्षय नहीं होता; यह सदा अविनश्वर, एकरस और एक रूप रहता है। बारहवें अध्याय के तीसरे श्लोक में जिस अव्यक्त अक्षर की उपासना का वर्णन है, यहाँ भी यह उसी का प्रसंग है।
प्रश्न-‘वीतरागाः’ विशेषण के साथ ‘यतयः’ पद किनका वाचक है?
उत्तर-जिनमें आसक्ति का सर्वथा अभाव हो गया है वे -वीतराग’ हैं और ऐसे वीतराग, तीव्र वैराग्यवान्, परमात्मा की प्राप्ति के पात्र, ब्रह्म में स्थित एवं उच्च श्रेणी के साधनों से सम्पन्न जो संन्यासी महात्मा हैं, उनका वाचक यहाँ ‘यतयः‘ पद है।
प्रश्न-‘यत्, विशन्ति’ का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इसका शब्दार्थ है, जिसमें प्रवेश करते हैं। अभिप्राय यह है कि यहाँ ‘यत्’ पद उस सच्चिदानंदधन परमात्मा को लक्ष्य करके कहा गया है, जिसमें उपर्युक्त साधन करते-करते साधन की शेष सीमा पर पहुँचकर यति लोग अभेद भाव से प्रवेश करते हैं। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिये कि इस प्रवेश का अर्थ कोई आदमी बाहर से किसी घर में गया ऐसा नहीं है। परमात्मा तो अपना स्वरूप होने से नित्य प्राप्त ही है, इस नित्य प्राप्त तत्त्व में जो अप्राप्ति का भ्रम हो रहा है-उस अविद्या रूप भ्रम का मिट जाना ही उसमें प्रवेश करना है।
प्रश्न-‘जिसको चाहने वाले ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं’ इस वाक्य का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-‘यत्’ पद उसी ब्रह्म का वाचक है, जिसके सम्बन्ध में वेदविद् लोग उपदेश करते हैं और ‘वीतराग यति’ जिसमें अभेद भाव से प्रवेश करते हैं। यहाँ इस कथन से यह भाव समझना चाहिये कि उसी ब्रह्म को प्राप्त करने के लिये ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हैं। ‘ब्रह्मचर्य’ का वास्तविक अर्थ है, ब्रह्मा में अथवा ब्रह्म के मार्ग में संचरण करना जिन साधनों में ब्रह्म प्राप्ति के मार्ग में अग्रसर हुआ जा सकता है, उनका आचरण करना। ऐसे साधन ही ब्रह्मचारी के व्रत कहलाते हैं, जो ब्रह्मचर्य-आश्रम में आश्रम धर्म के रूप में अवश्य पालनीय हैं और साधारणतया तो अवस्था भेद के अनुसार सभी साधकों को यथाशक्ति उनका अवश्य पालन करना चाहिये।
ब्रह्मचर्य में प्रधान तत्त्व है-बिन्दु का संरक्षण और संशोधन। इससे वासनाओं के नाश द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति में बड़ी सहायता मिलती है। ऊध्र्व रेता नैष्टिक ब्रह्मचारियों का तो वीर्य किसी भी अवस्था में अधोमुखी होता ही नहीं, अतएव वे तो ब्रह्म के मार्ग में अनायास ही आगे बढ़े जाते हैं। इनमें निम्न स्तर में वे हैं जिनका बिन्दु अधोगामी तो होता है, परन्तु वे मन, वचन और शरीर से मैथुन का सर्वथा त्याग करके उसका संरक्षण कर लेते हैं। यह भी एक प्रकार से ब्रह्मचर्य ही है। इसी के लिये गरुड़ पुराण में कहा है-
कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा।
सर्वत्र मैथुनत्यागो ब्रह्मचर्य प्रचक्षते।।
सब जगह सब तरह की स्थिति में सर्वदा मन, वाणी और कर्म से मैथुन का त्याग ब्रह्मचर्य कहलाता है।
आश्रम व्यवस्था का लक्ष्य भी ब्रह्म की ही प्राप्ति है। ब्रह्मचर्य सबसे पहला आश्रम है। उसमें विशेष सावधानी के साथ ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करना आवश्यक है। इसीलिये कहा गया है कि ब्रह्म की इच्छा करने वाले (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं।
प्रश्न-‘वह पद मैं तुझे संक्षेप से कहूँगा’ इस वाक्य का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इस वाक्य से भगवान् ने यह प्रतिज्ञा की है कि उपर्युक्त वाक्यों में जिस परब्रह्म परमात्मा का निर्देश किया गया है, वह ब्रह्म कौन है और अन्तकाल में किस प्रकार साधन करने वाला मनुष्य उसको प्राप्त होता है-यह बात मैं तुम्हें संक्षेप से कहूँगा।’
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुय च।
मूध्न्र्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्।। 12।।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।। 13।।
प्रश्न-यहाँ सब द्वारों का रोकना क्या है?
उत्तर-श्रोत्रादि पाँच ज्ञानेन्द्रिय और वाणी आदि पाँच कर्मेनिन्द्रय-इन दसों इन्द्रियों के द्वारा विषयों का ग्रहण होता है, इसलिये इनको ‘द्वार’ कहते हैं। इसके अतिरिक्त इनके रहने के स्थानों (गोलकों) को भी ‘द्वार’ कहते हैं। इन इन्द्रियों को बाह्य विषयों को बंद करके, साथ ही इन्द्रियों के गोलकों को भी रोककर इन्द्रियों की वृत्ति को अन्तर्मुख कर लेना ही सब द्वारों का संयम करना है। इसी को योग शास्त्र में ‘प्रत्याहार’ कहते हैं।
प्रश्न-यहाँ ‘हृद्देश’ किस स्थान का नाम है और मन को हृद्देश में स्थिर करना क्या है?
उत्तर-नाभि और कण्ठ-इन दोनों स्थानों के बीच का स्थान, जिसे हृदय कमल भी कहते हैं, और जो मन तथा प्राणों का निवास स्थान माना गया है, हृद्देश है; और इधर-उधर भटकने वाले मन को संकल्प-विकल्पों से रहित करके हृदय में निरुद्ध कर देना ही उसको हृद्देश में स्थिर करना है।-क्रमशः

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