Monday, May 20, 2024
समाचार

संघ प्रमुख का समरसता संदेश

पिछले कुछ दिनों से कुछ शब्दों के गलत अर्थ निकाल कर बहु समाज में विभाजन की कुटिल राजनीति चल रही है। ऐसे लोग बहु संख्यकों की आस्था पर भी प्रहार कर रहे हैं। पहले अवधी महाकाव्य राम चरित मानस शूद्र और ताड़ना शब्द का गलत अर्थ प्रचारित किया गया। ताड़ना को प्रताड़ना बताने की शरारत हुई। इसी मानसिकता से शूद्र शब्द को वर्तमान में अनुसूचित जाति से जोड़ दिया गया। इसके बाद कुछ लोगों ने मोहन भागवत के भाषण को निशाने पर ले लिया। इसमें भी केवल एक शब्द का ही अपनी राजनीतिक सुविधा से अर्थ निकाला। उनका पूरा भाषण देखते तो शायद निंदकों को संत रविदास के विचारों की जानकारी मिलती। मोहन भागवत ने सनातन और वैदिक दर्शन के तत्व ज्ञान को रेखांकित किया था। उन्हांेने कहा कि व्यक्ति कर्म से श्रेष्ठ होता है। नतीजतन व्यक्ति का जन्म कहां हुआ, यह मायने नहीं रखता।
व्यक्ति उसी धर्म का पालन करता है जो उसका मन, बुद्धि और संस्कारों से सुसंगत हो। बतौर भागवत शाश्वत धर्म कभी नहीं बदलता। उनका भाषण मराठी में था। वह मुंबई में आयोजित संत रविदास जयंती समारोह में बोल रहे थे। उन्होने कहा कि अपना देश, हिंदू समाज धर्म के आधार पर बड़ा हो, विश्व का कल्याण करे, यह हमारी भावना है। मौजूदा समय में देश की परिस्थिति पूरे जगत में ऐसी है, हम सब कर सकते हैं। ऐसा स्वप्न देखना संभव है। यदि चालीस वर्ष पूर्व कोई ऐसी बात कहता तो शायद उसकी हंसी उड़ाई जाती। पिछले कुछ वर्षों में देश की प्रतिष्ठा और सामर्थ्य बढ़ा है। भगवत गीता में धर्म की व्याख्या करते समय सत्य, करुणा, अंदर-बाहर पवित्रता और तपस्या ऐसे चार बिंदु प्रमुख माने गए हैं। इन बिंदुओं को छोड़कर कोई धर्म नहीं हो सकता। संत रविदास का जीवन दर्शन इन्ही चार बिंदुओं के इर्द-गिर्द घूमता नजर आता है। सिकंदर लोधी ने संत रविदास को इस्लाम कबूल करने के लिए कहा तो रविदास जी ने इनकार कर दिया था। रविदास ने कहा था कि वेदों में बताया हुआ धर्म श्रेष्ठ है। धर्मपरिवर्तन न करने की वजह से सिकंदर लोधी ने संत रविदास को जेल में डाल दिया था लेकिन रविदास जी ने धर्मपरिवर्तन नहीं किया। सरसंघचालक ने कहा कि मानव कल्याण के लिए धर्मपरिवर्तन की आवश्यकता नहीं होती, ऐसा रविदास ने अपने आचरण से साबित किया था। इसी प्रकार औरंगजेब ने जब काशी विश्वनाथ मंदिर तोड़ा और हिंदुओं पर अत्याचार प्रारंभ किए तब छत्रपति शिवाजी ने औरंगजेब को पत्र भेजा था कि राजा को धर्म के आधार पर प्रजा को नहीं बांटना चाहिए। एक धर्म के लोगों का हित करते हुए यदि दूसरे धर्म के लोगों पर अत्याचार होंगे तो ऐसी हुकूमत के खिलाफ उन्हें तलवार लेकर उत्तर भारत की ओर जाना पड़ेगा। समता, कर्म और श्रम को महत्त्व देंगे तभी हमारा सामर्थ्य बढ़ेगा। हमारे समाज में श्रम को प्रतिष्ठा नहीं दी जाती। सरसंघचालक ने बताया कि भारत में बेरोजगारी की प्रमुख वजह श्रम प्रतिष्ठा का अभाव है। श्रमनिष्ठा को कल्याणी मान कर चलना होगा। समाज में धर्म-जाति और विषमता के आपसी भेद मिटाकर स्नेह भाव बढ़ना चाहिए। अपने मन, बुद्धि और संस्कारों से सुसंगत धर्म का पालन कर श्रम को प्रतिष्ठा देनी होगी तभी भारत विश्वगुरु बनेगा और संत रविदास का नाम पूरे विश्व में जाना जाएगा।
मोहन भागवत ने कहा वस्तुतः विषय विशेषज्ञ को पंडित कहते हैं। ब्राह्मण वर्ण है। कुछ समय पहले भी मोहन भागवत ने सामाजिक समरसता का सन्देश दिया था। उनका कहना था कि सभी भारतीयों का डीएनए एक है। इसलिए सामाजिक समरसता का भाव रहना चाहिए। उपासना पद्धति में अंतर होने से भी इस विचार पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। भारत में तो प्राचीन काल से सभी मत पंथ व उपासना पद्धति को सम्मान दिया गया। सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः ही भारत की विचार दृष्टि है। निःस्वार्थ सेवा और सामाजिक समरसता भारत की विशेषता रही है। सेवा कार्य में कोई भेदभाव नहीं होता। संविधान की प्रस्तावना में ही बंधुत्व की भावना का उल्लेख किया गया है। यह शब्द हिंदुत्व की भावना के अनुरूप है। इस दर्शन में किसी सम्प्रदाय से अलगाव को मान्यता नहीं दी गई। विविधता के बाद भी समाज एक है। भाषा, जाति, धर्म, खानपान में विविधता है। उनका उत्सव मनाने की आवश्यकता है। कुछ लोग विविधता की आड़ में समाज और देश को बांटने की कोशिश में जुटे रहते हैं लेकिन भारतीय चिंतन विविधता में भी एकत्व सन्देश देता है। हमारी संस्कृति का आचरण सद्भाव पर आधारित है। यह हिंदुओं तक सीमित नहीं है, बल्कि भारत में रहने वाले ईसाई और मुस्लिम परिवारों के भीतर भी यह भाव साफ देखा जा सकता है। एक सौ तीस करोड़ का समाज भारत माता का पुत्र है। बंधु है। क्रोध और अविवेक के कारण इसका लाभ लेने वाली अतिवादी ताकतों से सावधान रहना है। सेवा समरसता आज की आवश्यकता है। इस पर अमल होना चाहिए। इसी से श्रेष्ठ भारत की राह निर्मित होगी। वर्तमान परिस्थिति में आत्मसंयम और नियमों के पालन का भी महत्व है। समाज में सहयोग सद्भाव और समरसता का माहौल बनाना आवश्यक है। भारत दूसरे देशों की सहायता करता रहा है। क्योंकि यहीं हमारा विचार है।
समस्त समाज की सर्वांगीण उन्नति ही हमारा एकमात्र लक्ष्य है। जब हिंदुत्व की बात आती है तो किसी अन्य पंथ के प्रति नफरत, कट्टरता या आतंक का विचार स्वतः समाप्त हो जाता है। तब वसुधैव कुटुंबकम व सर्वे भवन्तु सुखिनः का भाव ही जागृत होता है। भारत जब विश्व गुरु था,तब भी उसने किसी अन्य देश पर अपने विचार थोपने के प्रयास नहीं किये। भारत शक्तिशाली था, तब भी तलवार के बल पर किसी को अपना मत त्यागने को विवश नहीं किया। दुनिया की अन्य सभ्यताओं से तुलना करें तो भारत बिल्कुल अलग दिखाई देता है, जिसने सभी पंथों को सम्मान दिया। सभी के बीच बंधुत्व का विचार दिया। ऐसे में भारत को शक्ति संम्पन्न बनाने की बात होती है तो उसमें विश्व के कल्याण का विचार ही समाहित होता है। भारत की प्रकृति मूलतः एकात्म है और समग्र है। अर्थात भारत संपूर्ण विश्व में अस्तित्व की एकता को मानता है।
इसलिए हम टुकड़ों में विचार नहीं करते। हम सभी एक साथ विचार करते हैं। समाज का आचरण शुद्ध होना चाहिए। इसके लिए जो व्यवस्था है उसमें ही धर्म की भी व्यवस्था है। धर्म में सत्य, अहिंसा, अस्तेय ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, स्वाध्याय, संतोष, तप को महत्व दिया गया। जब भारत एवं भारत की संस्कृति के प्रति भक्ति जागती है व भारत के पूर्वजों की परंपरा के प्रति गौरव जागता है, तब सभी भेद तिरोहित हो जाते हैं। योगी आदित्यनाथ ने भी कहा कि पूरे देश का डीएनए एक है। यह थ्योरी से प्रमाणित हुआ है। यहां आर्य-द्रविण का विवाद झूठा और बेबुनियाद रहा है। भारत का डीएनए एक है। इसलिए भारत एक है। दुनिया की तमाम जातियां अपने मूल में ही समाप्त होती गई हैं जबकि भारत में फलफूल रही हैं। पूरी दुनिया को भारत ने ही वसुधैव कुटुंबकम का भाव दिया है। इसलिए वह श्रेष्ठ है। प्रत्येक भारतीय को अपने पवित्र ग्रन्थों वेद, पुराण उपनिषद, रामायण महाभारत आदि की जानकारी है। भारतीय परम्परागत रूप से इन कथाओं को सुनते हुए,उनसे प्रेरित होते हुए आगे बढ़ता है। आर्य बाहरी हैं कि थ्योरी कुटिल अंग्रेजों और वामपंथी इतिहासकारों की देन है। वेद, पुराण या हमारे अन्य ग्रन्थ यह नहीं कहते कि हम बाहर से आए हैं। हमारे ग्रन्थों में आर्य श्रेष्ठ के लिए और अनार्य दुराचारी के लिए कहा गया है। रामायण में माता सीता ने प्रभु श्रीराम की आर्यपुत्र कहकर संबोधित किया है।

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