Monday, May 20, 2024
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‘कल्पवास’ में बांसुरी से चलती है रेहान की रोजी

रेहान राजा ने बताया कि अमावस के दिन पंद्रह सौ रुपए की कमाई हुई थी। अमावस से हम लोग यहां आए हैं। 80 से 90 लोग है। सभी मुस्लिम हैं। मेला क्षेत्र में हम लोग रहते हैं और गंगा नहाते हैं। भीड़ कम होने से कमाई पर असर पड़ा है। बांसुरी के लिए आसाम से बांस आता है उसी की बांसुरी हमारे परिवार और गांव के लोग बनाते हैं। उसी बांसुरी को कल्पवास और दूसरे मेले में बेचकर लोग अपनी आजीविका चलाते हैं।
गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस मंे प्रयागराज मंे माघ स्नान के पुण्य को दर्शाते हुए लिखा है-
माघ मकरगत रवि जब होई।
तीरथपतिहिं आव सब कोई।
देव दनुज किन्नर नर श्रेनीं।
सादर मज्जहिं सकल त्रिवेनी।
तीर्थराज प्रयाग गंगा के विशाल मैदान में बसा है। प्रयाग को सभी तीर्थं का राजा कहा गया है। प्रयाग समस्त कष्टों को हरने वाला ही नहीं अनेक संस्कृतियों के मिलन का संगम भी है। यहाँ गंगा-यमुना और अदृश्य सरस्वती के साथ देश के विभिन्न धर्म-संस्कृतियों की भी कल्पवास में त्रिवेणी बहती हैं। गंगा और त्रिवेणी स्नान से सिर्फ मोक्ष ही नहीं अर्थ एवं धर्म की भी प्राप्ति होती है। दुनिया भर में नदी सभ्यता में इतना बड़ा भूभाग कहीं नहीं मिलता है जहां विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक मेला आयोजित होता है। कल्पवास में साम्प्रदायिक सद्भाव भी देखने को मिलता है।
प्रयागराज को कुंभ, संगम और तंबुओं की नगरी से भी जाना जाता है। पूरे महींने भर देश-विदेश से आए श्रद्धालु और भक्त तंबू में कल्पवास करते हैं। चारों पीठों के शंकराचार्य एवं साधु-संतों का आगमन होता है। यहां प्रत्येक 12 साल पर कुंभ का आयोजन होता है, जिसमें नागा साधुओं की पेशवाई देखते बनती है। कहा जाता है ब्रह्मा ने सृष्टि का प्रथम यज्ञ यहीं किया था। प्र से प्रथम और याग से यज्ञ। इसकी वजह इसका नाम प्रयाग पड़ा।
इस पवित्र धर्मनगरी के अधिष्ठाता भगवान विष्णु हैं जो स्वयं यहां वेणी माधव के रूप में विराजमान है।पुराणों में सात पुरियां हैं, जिसमें अयोध्या, मथुरा, मायापुरी, काशी, कांची, अवंतिका और द्वारका है। पुरियों को तीर्थराज प्रयाग की धर्म पत्नियों की संज्ञा दी गई है। सात पुरियों में काशी सर्वश्रेष्ठ है। इसे तीर्थराज की पटरानी कहा गया है। धार्मिक मान्यता के अनुसार सभी क्षेत्रों की उत्पत्ति प्रयागराज से हुई है और प्रयागराज ने इन्हें मोक्ष का अधिकार प्रदान किया है।
प्रयाग में मास भर का आयोजित होने वाला कल्पवास हमारी सांझी सांस्कृतिक विरासत है। कल्पवास क्षेत्र में जाति-धर्म, भाषा और रंग का भेद मिट जाता है। प्रयाग में विभिन्न धर्म और संस्कृतियों से आने वाला व्यक्ति सिर्फ और सिर्फ प्रयाग का होकर रह जाता है। प्रयाग में सिर्फ मनुष्यता दिखती है। यहाँ आपको सब कुछ मिल जाएगा। परेड ग्राउंड में आपकी जरूरत के सभी सामान भी मिल जाएंगे। देश के कोने-कोने से आयी दुकानें और सांझा संस्कृति के लोग मिल जाएंगे। कल्पवास में जाति-धर्म और भाषा भेद का भाव मिट जाता है। प्रयाग को अच्छी तरह जानने के लिए सिर्फ कल्पवास और त्रिवेणी स्नान काफी नहीं है। उसे पढ़ने के लिए रेत-रेत में बिखरना होगा, तब आपको पता चलेगा कि इस पवित्र रेती में पूरा भारत विभिन्न रंग-रूपों में बिखरा पड़ा है।
संगम की रेती में बिहार के रेहान राजा की बांसुरी क्यों बजती है। झारखण्ड के जय प्रकाश की फिरंगी क्यों नाचती है। सहारनपुर के सलीम बालमखीरा का चूरन क्यों बेचने आते हैं। इनके लिए कल्पवास का क्या मतलब है। इन्हीं के जीवन संघर्ष में छुपा है अर्थ, धर्म और मोक्ष का अर्थ। परेड ग्राउंड में देश भर से आए खादी ग्राम उद्योग की दुकाने मिल जाएंगी। कान्हा- श्याम की सुंदर मूर्ति और कपड़े पर मिल जाएंगे। धार्मिक पुस्तकों के शौकीन हैं तो गीता प्रेस गोरखपुर की मेले भर में किताबों की दुकान भी मिलेगी। रामदाने की पट्टी और बच्चों के खिलौने आसानी से सुलभ मिलते हैं। कल्पवास महाशिवरात्रि तक चलेगा।
गंगा घाट पर स्नान के दौरान हमें बिहार के रेहान राजा बांसुरी बेचते मिल गए। उसकी उम्र तकरीबन 15 साल की है। अपने अब्बा के साथ पहली बार प्रयाग कल्पवास में आए हैं बांसुरी बेचने। लॉकडाउन के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दिया। बाबा के साथ मेले में बांसुरी बेचकर पैसा कमाते हैं। उस पैसे से बहन की शादी करेंगे। लॉकडाउन के बाद पैसे की किल्लत होने लगी तो पढ़ाई छोड़नी पड़ी। पांचवीं तक पढ़ाई की है। बाद में अब्बा के साथ पुस्तैनी धंधे में लग गए। रेहान छपरा जिले के बनियापुर थाना के मिसकारी टोला गांव से आते हैं। रेहान ने बताया कि उनकी तीन बहने हैं उनकी शादी करनी है एक की हो गई है दूसरे की करनी है। बैंक का काफी कर्ज है। अब्बा इसी बांसुरी की कमाई से बैंक की किस्त भरते हैं।
रेहान राजा ने बताया कि अमावस के दिन पंद्रह सौ रुपए की कमाई हुई थी। अमावस से हम लोग यहां आए हैं। 80 से 90 लोग है। सभी मुस्लिम हैं। मेला क्षेत्र में हम लोग रहते हैं और गंगा नहाते हैं। भीड़ कम होने से कमाई पर असर पड़ा है। बांसुरी के लिए आसाम से बांस आता है उसी की बांसुरी हमारे परिवार और गांव के लोग बनाते हैं। उसी बांसुरी को कल्पवास और दूसरे मेले में बेचकर लोग अपनी आजीविका चलाते हैं।
कल्पवास की रेती में ही झारखण्ड के राजमल साहबगंज, उदवाँ के रहने वाले जय प्रकाश राय मिल गए। वह बच्चों के लिए खिलौने के साथ बांस और कागज से बनी फिरंगी बेच रहे थे। उन्होंने बताया कि मेले में हर दिन 300 से 500 बचा लेते हैं। धंधा तो हजार रुपए तक का हो जाता है लेकिन सामानों के खर्च को काटकर इतना बच जाता है। वह मेले में पिछले 13 जनवरी से आए हैं। गंगा में नित्य स्नान करते हैं। इसके बाद अपने रोजी-रोजगार में लग जाते हैं। कल्पवास खत्म होने के बाद वह दिल्ली चले जाएंगे और वहां यहीं फिरंगी बेचेंगे।
संगम वापसी करते समय मुझे पुल नंबर चार के रास्ते में सहारनपुर के सलीम मिल गए। सलीम बालम खीरा का चूर्ण बेच रहे थे। बोले ले लीजिए साहब। यह पेट के लिए अचूक रामबाण है। बस भोजन के बाद गुनगुने पानी से फांक लीजिए। सुबह पेट सफा तो सारे रोग दफा। 200 रुपये प्रति किलोग्राम का है साहब। हमने सलीम से चूर्ण का एक पैकेट खरीद लिया। उन्होंने बताया कि अब तक तीन कुंतल से अधिक चूरन बेंच चुके है।
सहारनपुर के सलीम से हमने पूछा कि आजकल देश में हिंदू मुस्लिम का अधिक प्रचार है। आप हिंदू मेले में आए हैं आपको कोई डर नहीं लगता। बोले राजनीति को छोड़िए साहब। देश सबका है। राजनीति से क्या मिलेगा। हम यहां हर साल आते हैं। प्रयाग में किसी जाति-धर्म का भेदभाव नहीं। यहां प्रशासनिक सहयोग खूब मिलता है। इससे साफ जाहिर होता है कि प्रयाग में लगने वाला कल्पवास अप्रत्यक्ष रुप से पूरे देश को एक धागे में पिरोता है। कल्पवास एक भारत श्रेष्ठ भारत का सबसे अनुपम उदाहरण है।

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