Thursday, May 2, 2024
देशसमाचार

जनहित के नाम पर खिलवाड़

 

परहित सरिस धरम नहिं भाई…. की गुहार लगाने वाले जनहित और जनसेवा के नाम पर खिलवाड़ करने लगे हैं। जनसेवा के बारे मंे फिर कभी बात करेंगे, यहां पर जनहित के नाम पर क्या हो रहा है, उसकी चर्चा करेंगे। यह बात भी अदालत की एक खबर देखकर याद आयी। अदालत मंे जनहित के नाम पर याचिकाएं दायर की जाती हैं। न्यायालय इनको प्राथमिकता भी देता है जैसे आपातकालीन कक्ष में पहुंचे रोगी को सबसे पहले देखा जाता है। जनहित याचिका भी प्राथमिकता के तौर पर ली जाती है लेकिन जब पता चलता है कि किसी ने फिजूल मंे जनहित याचिका दायर कर दी है तो अदालत को भी गुस्सा आना स्वाभाविक है। यह गुस्सा अगर सुप्रीम कोर्ट को आता है तो शरारत करने वाले की खटिया भी खड़ी हो सकती है। गत 5 दिसम्बर को भी कुछ ऐसा ही हो गया। उपेन्द्रनाथ दलाई नामक व्यक्ति ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर मांग की थी कि स्वामी अनुकूल चंद्र ठाकुर को ही एकमात्र भगवान माने जाने का निर्देश सुप्रीम कोर्ट दे। स्वामी अनुकूल चन्द्र ठाकुर कौन हैं? यह तो मैं नहीं जानता। ऐसे कितने ही लोग होंगे जिनको हम आप नहीं जानते लेकिन उन्होंने अपने कितने ही ऐसे अनुयायी बना रखे हैं जो उनको परम शक्तिमान मानते हैं। ऐसे ही श्रद्धालु उपेन्द्र नाथ जी प्रतीत होते हैं लेकिन जनहित याचिका के नाम पर उन्होंने अपनी श्रद्धा थोपने का जिस तरह प्रयास किया, उससे सुप्रीम कोर्ट की भृकुटियां तन गयीं। सुप्रीम कोर्ट ने याचिका खारिज करते हुए एक लाख रुपये का जुर्माना भरने का आदेश दिया है। याचिकाकर्ता ने जब कहा कि जुर्माना ज्यादा है तो सुप्रीम कोर्ट का जवाब था कि हमने तो कम जुर्माना लगाया है। किसी को हक नहीं है कि जनहित याचिका का दुरुपयोग करे..। बहरहाल, इससे उन लोगों को सीख लेनी चाहिए जो जनहित याचिका का भी दुरुपयोग करते हैं।
सुप्रीम कोर्ट में पांच दिसम्बर को एक अजीब सी जनहित याचिका दाखिल हुई। इसमें याचिकाकर्ता ने स्वामी अनुकूल चंद्र ठाकुर को ही एकमात्र भगवान माने जाने के निर्देशों की मांग सुप्रीम कोर्ट से की। सुप्रीम कोर्ट ने एक लाख रुपये के जुर्माने के साथ याचिका खारिज की। याचिका खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एम आर शाह और जस्टिस सी टी रविकुमार ने कहा कि आप चाहे जो मानें लेकिन आप देश के सभी नागरिकों को श्री श्री अनुकूल ठाकुर को भगवान मानने को कैसे कह सकते हैं? याचिकाकर्ता के जुर्माना नहीं लगाने की गुजारिश पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आपने जनहित याचिका का दुरुपयोग किया है। हमने तो कम जुर्माना लगाया है। किसी को हक नहीं है कि जनहित याचिका का दुरुपयोग करे। भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। यहां सभी को अपनी धार्मिक आस्था के हिसाब से पूजा करने और अपने
आराध्य के उपदेशों, शिक्षा और मान्यता का प्रचार करने का अधिकार है, लेकिन कोई भी किसी को मजबूर नहीं कर सकता। उपेंद्र नाथ दलाई ने याचिका में बीजेपी, आरएसएस, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, गुरुद्वारा बंगला साहिब, इस्कॉन समिति, बुद्धिस्ट सोसाइटी ऑफ इंडिया, नेशनल क्रिश्चिएन काउंसिल आदि को भी पार्टी बनाया था।
भारतीय कानून में, सार्वजनिक हित की रक्षा के लिए मुकदमे का प्रावधान है। अन्य सामान्य अदालती याचिकाओं से अलग, इसमें यह आवश्यक नहीं कि पीड़ित पक्ष स्वयं अदालत में जाए। यह किसी भी नागरिक या स्वयं न्यायालय द्वारा पीडितों के पक्ष में दायर किया जा सकता है। इसे जनहित याचिका कहते हैं।
जनहित याचिका भारतीय संविधान या किसी कानून में परिभाषित नहीं है। यह उच्चतम न्यायालय के संवैधानिक व्याख्या से व्युत्पन्न है, इसका कोई अंतर्राष्ट्रीय समतुल्य नहीं है और इसे एक विशिष्ट भारतीय अधिकार के रूप में देखा जाता है। इस प्रकार की याचिकाओं का विचार अमेरिका में जन्मा। वहाँ इसे सामाजिक कार्यवाही याचिका कहते है। यह न्यायपालिका का आविष्कार तथा न्यायधीश निर्मित विधि है। भारत में जनहित याचिका
पी.एन. भगवती ने प्रारंभ की थी।
ये याचिकाएँ जनहित को सुरक्षित तथा बढाना चाहती है। ये लोकहित भावना पर कार्य करती हैं। ये ऐसे न्यायिक उपकरण है जिनका लक्ष्य जनहित प्राप्त करना है। इनका लक्ष्य तीव्र तथा सस्ता न्याय एक आम आदमी को दिलवाना तथा कार्यपालिका विधायिका को उनके संवैधानिक कार्य करवाने हेतु किया जाता है। ये समूह हित में काम आती है न कि व्यक्ति हित में। यदि इनका दुरूपयोग किया जाये तो याचिकाकर्ता पर जुर्माना तक किया जा सकता है। इनको स्वीकारना या ना स्वीकारना न्यायालय पर निर्भर करता है।
जनहित याचिकाओं की स्वीकृति हेतु उच्चतम न्यायालय ने कुछ नियम बनाये हैं। इसके अन्तर्गत लोकहित से प्रेरित कोई भी व्यक्ति, संगठन इन्हे ला सकता है। कोर्ट को दिया गया पोस्टकार्ड भी रिट याचिका मान कर ये जारी की जा सकती है। कोर्ट को अधिकार होगा कि वह इस याचिका हेतु सामान्य न्यायालय शुल्क भी माफ कर दे और ये राज्य के साथ ही निजी संस्थान के विरूद्ध भी लायी जा सकती है।
इस याचिका से जनता में स्वयं के अधिकारों तथा न्यायपालिका की भूमिका के बारे में चेतना बढती है यह मौलिक अधिकारों के क्षेत्र को वृहद बनाती है इसमे व्यक्ति को कई नये अधिकार मिल जाते है। यह कार्यपालिका विधायिका को उनके संवैधानिक कर्तव्य करने के लिये बाधित करती है, साथ ही यह भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन की सुनिशिचतता करती है। ये सामान्य न्यायिक संचालन में बाधा डालती है। यह भी देखा गया कि इनके दुरूपयोग की प्रवृति परवान पर है। इसके चलते सुप्रीम कोर्ट ने खुद कुछ बन्धन इनके प्रयोग पर लगाये है जनहित याचिका नियमित न्यायिक याचिकाओं से भिन्न है। हालाँकि यह समकालीन भारतीय कानून व्यवस्था का महत्वपूर्ण अंग है, आरम्भ में भारतीय कानून व्यवस्था में इसे यह स्थान प्राप्त नहीं था। इसकी शुरुआत अचानक नहीं हुई, वरन् कई राजनैतिक और न्यायिक कारणों से धीरे-धीरे इसका विकास हुआ। अब इनका दुरुपयोग ज्यादा हो रहा है। इसका एक उदाहरण उपेन्द्र नाथ दलाई ने पेश किया। सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह कड़ा रुख अपनाया है, उसकी तारीफ करनी चाहिए।

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