Friday, May 3, 2024
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बिना रकीब के इश्क का मजा ही क्या ?

बिना रकीब के इश्क का मजा ही क्या? शहादत के इस इश्क में राजगुरू अपना रकीब समझते थे भगतसिंह को। भगत सिंह के लिये यह एक अच्छी खासी दिल्लगी थी परन्तु राजगुरु के लिए यह एक पूरी तरह से दिल लगा थी । भगतसिंह शारीरिक सुन्दरता में साधारण से बहुत अधिक अच्छे थे तो राजगुरू थोडा कम थे। दल के क्रान्तिकारी नवनयुवकों को शिक्षा – दीक्षा के औसत स्तर से भगतसिहं जितने पर थे , राजगुरु उतने ही नीचे । दल में एक दूसरे के प्रति आदर और सम्मान का जो औसत मान था भगतसिंह को उससे जितना अधिक मिलता था राजगुरु को उससे उतना ही कम । राजगुरु की आम शिकायत यही रहती थी कि रणजीत जो कहता है। उसे सब मान लेते हैं और में कहता हू। तो उसकी तरफ कोई ध्यान भी नहीं देता । राजगुरु का यह शौके शहादत और भगतसिंह के प्रति उनकी यह रकाबत दल के सदस्यों के जोखिम भरे जीवन में विनोद का एक बडा स्त्रोत था इसमें सभी लोगों का सदैव बड़ा मनोरंजन होता था । जब जब दल में कोई ऐसी बात चली जिसमें दल के किसी साथी के शहीद होने की सम्भावना है तो राजगुरु बेताव रहते थे। और कहीं भगतसिंह को ही शहादत मिलने की बात आयी फिर तो राजगुरु की तड़प और बेताबी काबिलेदीद हो जाती थी । उस समय दल में सिपाही साथियों के लिए राजगुरु मनोरंजन के एक जिन्दा खिलौना बन जाते थे और दल के नेताओं के लिए एक गम्भीर समस्या । अनेक बार ऐसा है कि किसी कार्य विशेष के लिए दल के नायक चन्द्रशेखर आजाद आदि द्वारा अन्यथा अयोग्य या अनुपयुक्त समझे जाने पर भी अपनी इस वेचनी और देश के लिए एक समस्या बन जाने के कारण से राजगुरु को वन कार्य के लिए नियुक्त करने का निश्चय दल की करना पड़ता था । दल के प्रति बफादारी का विश्वास भी सबसे ज्यादा प्राप्त था।

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