Friday, May 3, 2024
उत्तराखंड

पं. जुगुल किशोर शुक्ल और हिंदी पत्रकारिता

 

पं. जुगुल किशोर शुक्ल ने हिंदी पत्रकारिता के लिए जो मापदण्ड बनाए आज भी प्रासांगिक हैं। भारतीय पत्रकारिता का इतिहास एक तरह से आजादी की लड़ाई के साथ जुड़ा है, जो जन विरोधी, अन्याय, तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुझने से शुरू हुई थी, जिसमें प्रतिबद्धता का सरोकार सबसे ज्यादा था। आजादी की लड़ाई में जनचेतना का प्रवाह गतिशील करने में हिंदी पत्रकारिता का योगदान सबसे ज्यादा रहा है। अंग्रेजों के बढ़ते शोषण और उनके दमन चक्र ने जहां हमें सचेत किया, वहीं राष्ट्र प्रेम एवं देश की आजादी सर्वस्व न्यौछावर की प्रेरणा भी एक तरह से पत्रकारिता से ही मिली है। आजादी के पूर्व पत्रकार जहां राष्ट्रप्रेम से सराबोर थे, वहीं उनमें सामाजिक चेतना और जागरुक बनने का संकल्प भी कूट-कूट कर भरा हुआ था। उस समय का बुद्धजीवी वर्ग राष्ट्रवादी एवं सांस्कृतिक गतिविधियों को भी आजादी की ओर मोड़कर कर राष्ट्रीय चेतना का उन्मेश प्रवाहित कर रहा था।
हिंदी पत्रकारिता कि गौरवमयी परम्परा कि शुरुआत 30 मई सन् 1826 में कलकत्ता से प्रकाशित उदंत मार्तण्ड साप्ताहिक अखबार से हुई। जिसके कर्ताधर्ता पं. जुगुल किशोर शुक्ल कानपुर के निवासी थे। उदन्त मार्तण्ड अखबार में बहुभाषी प्रकाशन होने के कारण हिन्दी और संस्कृत का समावेश रहता था अखबार के मत्थे पर संस्कृत का एक लिखा श्लोक दैदीप्य होकर ‘‘उदंत’’ मार्तण्ड की परिभाषा गढ़ रहा था, जिसका अर्थ है प्रकाशमान सूर्य।
जुगुल किशोरः कथयति घीरः, सविनयमेतद सुकुलज वंशः।
उदिते दिन कृति सति मार्तन्डे, तद्वत् विलसति लोक उदन्ते।।
मार्तण्ड ने उस समय जहां अंग्रेजियत को प्रभावहीन किया वहीं इस प्रकार कि मानसिकता को तोड़ने में काफी मशक्कत की थी। वैसे भी इस अखबार के संपादन का मुख्य उद्देश्य हिन्दुस्तानियों को आजाद करना था। आर्थिक कठनाईयों के कारण इस अखबार को आखिरकार 4 दिसम्बर 1827 को बंद करना पड़ा। यद्यपि इस पत्र की उम्र ज्यादा लम्बी नहीं रही, फिर भी इस अखबार ने पत्रकारिता कि दशा और दिशा का जो संकल्प लिया था, वह आगे पत्रकारिता के लिए महत्वपूर्ण साबित हुआ।
उस समय पत्रकारिता को सच्चाई की खोज की संज्ञा दी जाती थी, जिसे उस समय के पत्रकार मिशन के रूप में स्वीकार करते थे। आज पत्रकारिता की परिस्थितियां बिलकुल विपरीत हैं। वर्तमान पत्रकारिता उद्देश्यहीन हो गई है, पत्रकार राष्ट्रप्रेम की जगह राजनैतिक दलो की कठपूतली बनकर भारत की दुनिया में सोसल मीड़िया के मंच से अभिव्यक्त की स्वतंत्रता के नाम पर आलोचना का केवल पोपोगण्डा बना रखा है। जबकि देश की आजादी के दौरान पत्रकार राष्ट्रीयता के नाम पर मर मिटने को उद्यत थे।
देश के संविधान के सबसे बडे मंदिर लोक सभा के निर्माण और उद्घाटन में कुछ पत्रकारो की भूमिका राष्ट्र विरोधी रही है। चाहे राजनैतिक लोग हों या पत्रकार हो सब के लिये राष्ट्र सर्वोपरि है। हिन्दी पत्रकारिता दिवस मेरी दृष्टिकोण में समीक्षा का दिवस है।
देश में कुल प्रचलित लगभग 4453 अखबार हैं। जिनमें अंग्रेजी के अखबार 320 हैं, जबकि हिंदी के 2004, उर्दू के 473 कन्नड़ के 268, मराठी के 261 और मलयालम के 2041 हैं। मैकाले के मानस पुत्रों के कारण ही आज भी भारत में अंग्रेजों का भाषाई उपनिवेश कायम है, कोई भी भारतीय भाषा सरकार से संवाद का माध्यम नहीं बन सकी है। मैकाले भारत में ऐसे बीजरोपण में सफल हुआ जिनसे वह वर्ग तैयार हुआ जो रक्त और रंग से तो भारतीय है, परन्तु रूचि, विचार और नैतिकता में अंग्रेजी परस्त।
हिन्दी के प्रति समर्पण की भावना सीमान्त गांधी अब्दुल गफर खान में देखी गई जब 1947 में भारत की संवैधानिक असेम्बली में हिन्दी में बोले थे। स्वतंत्रता के बाद जब एक आम भाषा का सवाल उठा, तब मतदान हुआ और अध्यक्ष के निर्णायक मत में हिन्दी विजयी रही। इस प्रकार भारत का संविधान तैयार किया गया। तब अनुच्छेद 353 में संघ की राजभाषा हिन्दी और देवनागरी लिपि घोषित की गई। उदारीकरण के नाम भारतीय पत्रकारिता में विदेशी मीडिया का निवेश भी अंग्रेजी भाषा का उपनिवेश का द्योतक ही प्रतीत हो रहा है। देश की पत्रकारिता में भूचाल खड़ा कर देने वाले इस विदेशी मीडिया की घुसपैठ की आलोचनाएं भी हुई । एक वरिष्ठ पत्रकार ने तो इसके पक्ष में अनेक तर्क दिए और काफी संख्या में अखबार मालिकों को पक्ष में खड़ा कर केंद्र सरकार से शोहरत पाई थी,लेकिन भाषाई उपनिवेशवाद की निर्णायक लड़ाई अभी लड़ी जानी है। अखबार में बाजार भाव हावी होने की दशा में आज स्थित यह हो गई है कि समाज संस्कृति, विज्ञान,स्वास्थ्य,शिक्षा ,पर्यावरण जैसी मानव से सरोकार की खबरें तो यदा कदा, लेकिन हिंसा, अनाचार, अपराध और राजनीति की खबरें बड़े चटखारे के साथ प्रकाशित की जा रहीं हैं।
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते,रमन्ते तंत्र देवताः को अप्रासंगिक करते हुए व्यवसायिक पत्रकारिता आये दिन नारी को उपभोक्ता संस्कृति के रूप में विज्ञापित कर समाज और खुद को शर्मसार कर अपनी व्यवसायिकता की भूख मिटा रही है। व्यवसायिक पत्रकारिता के इस दौर में सामाजिक मानदण्डों की खुली चुनौती है। इस माहौल में स्थापित अखबार प्रतिस्पर्धा में आगे भले हो लेकिन पत्रकारिता की अस्मिता के लिए सबसे बड़े घातक सिद्ध हो रहे हैं। अखबार चाहे बड़ा हो या छोटा,स्वस्थ्य पत्रकारिता के लिए स्थापित मानदण्डों के सिद्धान्तों की कसौटी पर खरा उतरना ही मेरी दृष्टि में सबसे उत्तम पत्रकारिता और समुन्नत अखबार है। उदन्त मार्तण्ड ने अपने कम समय में पत्रकारिता की जो यात्रा तय की है,आज के वे अखबार जो अपने को लोकतंत्र के कथित पोषक मानते हैं,उसके सामने बौने हैं।
आज पत्रकारिता के क्षेत्र में हमने विशेष उपलब्धियां भले ही अर्जित कर ली हों लेकिन संविधान में चौथे स्तम्भ के रूप में अपने प्रतिस्थापित नहीं कर पाये हैं। संविधान से अभिव्यक्ति के नाम पर सामान्य नागरिक को जो अधिकार प्रदत्त हैं वही पत्रकारों को है। प्रेस की आजादी के लिए संविधान में संशोधन हों। इंडियन फेडरेशने ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट के 26 जून 2003 को राष्ट्रीय अधिवेशन में मांग की थी कि वह संविधान के अनुच्छेद19(ए) में संशोधन कर अखबारों की आजादी के लिए अलग प्राविधान करें। इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स की 22 दिसम्बर 2003 तो राष्ट्रीय परिषद के 50 वें अधिवेशन के दौरान मीडिया और विधायिका की खुली चर्चा में मैंने यह बात खुलकर उठाई थी कि पत्रकारिता के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक आवश्यक आचार संहिता बनाने के लिए बहस हो और अलग एक आयोग गठित हो ताकि छद्म पत्रकारिता की आड़ में अराजकता के प्रवेश को कड़ाई से रोका जा सके। प्रेस की आजादी के लिए संविधान संशोधन की दशा में तमिलनाडु विधानसभा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुठाराघात करके अंग्रेजी दैनिक व हिन्दू के पाँच वरिष्ठ पत्रकारों व मुरासोली के सम्पादक के साथ विशेषाधिकारों में रोक के साथ पत्रकारों को अपमान की जलालत नहीं झेलनी पड़ेगी। यह तभी सम्भव है जब पत्रकार संगठनों के साथ समाज के प्रबुद्ध वर्ग एक साथ प्रयास करें।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *