Monday, May 20, 2024
देशसमाचार

कम शब्दों में व्यापक अर्थ बताते थे वैदिक

 

विख्यात पत्रकार डॉ वेद प्रताप वैदिक से बहुत कुछ सीखने समझने का अवसर मिला। कम शब्दों में किसी विषय के व्यापक विशेषण में उन्हें महारथ हासिल थी। शब्दों के अनुशासन पर सहज स्वाभाविक अमल करते थे। वह विद्वान थे। उनका अध्ययन चिंतन मनन और लेखन आजीवन चलता रहा। निधन से कुछ घण्टे पहले ही उन्होंने पाकिस्तान की दशा पर लेख लिखा था। वहाँ के विदेश मंत्री विलावल भुट्टो को आईना दिखाने का कार्य किया था।
कश्मीर पर बिलावल भुट्टो की निराशा शीर्षक वाला उनका लेख मंगलवार 14 मार्च की सुबह देश के अनेक अखबारों में प्रकाशित हुआ था। फिर उनके निधन का समाचार आया। इसके पहले पूर्वोत्तर राज्यों के चुनाव, राहुल गांधी के बयान, चीन, ईरान सऊदी अरब की दोस्ती जैसे विषयों पर उन्होंने सामयिक और बेबाक लेख लिखे थे। कोलंबिया यूनिवर्सिटी में अफगान अंतरराष्ट्रीय मामलों में अध्ययन के साथ वैदिक जी ने मॉस्को में इंस्टीट्यूट ऑफ पीपल ऑफ एशिया और लंदन के स्कूल ऑफ ओरियंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज से भी पढ़ाई की थी। उन्होंने पचास से अधिक देशों की यात्रा ही नहीं की, उन देशों के समाज और राजनीति पर उनका गहरा अध्ययन था। यही कारण है कि उनकी कई रिपोर्ट उत्कृष्टता के चलते शोध की श्रेणी में मानी गईं और विभिन्न पुरस्कारों से नवाजी गयी। ये सम्मान उनकी पत्रकारिता और पत्रकारिता की भाषा, दोनों ही के लिए थे। डॉ. वेदप्रताप वैदिक का जन्म 30 दिसंबर 1944 को इंदौर में हुआ था। वह रूसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत के जानकार थे। वैदिक ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल आफ इंटरनेशनल स्टडीज से अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की थी। वे भारत के ऐसे पहले विद्वान थे, जिन्होंने अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा था।
इस मौके पर श्रद्धांजलि स्वरूप डॉ. वेद प्रताप वैदिक का एक आलेख प्रस्तुत है। यह सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत के करीब छह साल पहले के मध्य प्रदेश प्रवास पर केंद्रित है। डॉ. वैदिक के इस नश्वर संसार को छोड़कर अनंत यात्रा पर चले जाने से उपजे सन्नाटे को यह लेख उम्मीद की लौ दिखाता नजर आ रहा है।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक ने आलेख में लिखा-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने मध्य प्रदेश यात्रा के दौरान ऐसा बयान दे दिया है, जो हिंदुत्व शब्द की परिभाषा ही बदल सकता है। अभी तक भारत में हिंदू किसे कहा जाता है और अहिंदू किसे? पहले अहिंदू को जानें। जो धर्म भारत के बाहर पैदा हुए, वे अहिंदू यानी ईसाई, इस्लाम, पारसी, यहूदी आदि! जो धर्म भारत में पैदा हुए, वे हिंदू यानी वैदिक, पौराणिक, वैष्णव, शैव, शाक्त, जैन, बौद्ध, सिख, आर्यसमाजी, ब्रह्म समाजी आदि। इन तथाकथित हिंदू धर्म की शाखाओं में चाहे जितना भी परस्पर सैद्धांतिक विरोध हो, उन सब को एक ही छत्र के नीचे स्वीकार किया जाता है। हिंदू-अहिंदू तय करने के लिए किसी सिद्धांत की जरूरत नहीं है। इस निर्णय का आधार सैद्धांतिक नहीं, भौगोलिक है।
इसे ही आधार मानकर विनायक दामोदर सावरकर ने प्रसिद्ध ग्रंथ हिंदुत्व लिखा था। हिंदुत्व की विचारधारा ने ही हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जन्म दिया था। सावरकरजी की मान्यता थी कि जिस व्यक्ति का पुण्यभू और पितृभू भारत में हो, वही हिंदू है। यानी जिसका पूजा-स्थल, तीर्थ, देवी-देवता, पैगंबर, मसीहा, पवित्र ग्रंथ आदि भारत के बाहर के हों, उसका पुण्यभू भी बाहर ही होगा। उसे आप हिंदू नहीं कह सकते चाहे भारत उसकी पितृभूमि हो यानी उसके पुरखों का जन्म स्थान हो। कोई भारत में पैदा हुआ है लेकिन, उसकी पुण्यभूमि मक्का-मदीना, यरुशलम, रोम या मशद है तो वह खुद को हिंदू कैसे कह सकता है? सावरकरजी की हिंदू की यह परिभाषा उस समय काफी लोकप्रिय हुई, क्योंकि उस समय मुस्लिम लीग का जन्म हो चुका था और इस्लाम के नाम पर अलग राष्ट्र की मांग जोर पकड़ने लगी थी। सावरकर का हिंदुत्व उस समय राष्ट्रवाद का पर्याय-सा बन गया था और लोग समझ रहे थे कि लीगी सांप्रदायिकता का यही करारा जवाब है। स्वयं सावरकर ने भारत के आजाद होने के 15-20 साल बाद अपने अभिमत पर पुनर्विचार किया था।
लेकिन संघ प्रमुख मोहन भागवत ने पुण्यभू की छूट देकर हिंदू शब्द की परिभाषा को अधिक उदार बना दिया है। उन्होंने बैतूल के भाषण में कहा कि हिंदुस्तान में रहने वाला हर नागरिक उसी तरह हिंदू कहलाएगा, जैसे अमेरिका में रहने वाला हर नागरिक अमेरिकी कहलाता है, उसका धर्म चाहे जो हो। उनके इस तर्क को थोड़ा आगे बढ़ाएं तो यहां तक जा सकता है कि किसी नागरिक के पुरखे या वह स्वयं भी चाहे किसी अन्य देश में पैदा हुआ हो, यदि उसे नागरिकता मिल जाए तो वह खुद को अमेरिकी घोषित कर सकता है। यानी किसी के हिंदू होने में न धर्म आगे आएगा और न ही उसके और उसके पुरखों का जन्म-स्थल। यानी पुण्यभू के साथ पितृभू की शर्त भी उड़ गई। सैद्धांतिक और भौगोलिक दोनों ही आधार इस नई परिभाषा के कारण पतले पड़ गए।
यूं भी हिंदू शब्द तो शुद्ध भौगोलिक ही था। यह सिंधु का अपभ्रंश है। सिंध से ही हिंद बना है। प्राचीन फारसी में स को ह बोला जाता था, जैसे सप्ताह को हफ्ता! सिंध का हिंद हो गया। स्थान का स्तान हो गया। हिंद और स्तान मिलकर हिंदुस्तान बन गया। हिंद से ही हिंदू, हिंदी, हिंदवी, हुन्दू, हन्दू, इंदू, इंडीज, इंडिया और इंडियन आदि शब्द निकले हैं। विदेशियों के लिए हिंदू शब्द भारतीय का पर्याय है। जब मैं पहली बार चीन गया तो चीन के विद्वान और नेता मुझे इंदुरैन इंदुरैन बोलते थे। यों तो भारत का प्राचीन नाम आर्यावर्त या भारत या भरतखंड ही है। मैंने वेदों, दर्शनशास्त्रों, उपनिषदों, आरण्यकों, रामायण, महाभारत या गीता में कहीं भी हिंदू शब्द कभी नहीं देखा। इस शब्द का प्रयोग तुर्की, पठानों और मुगलों ने पहले-पहल किया। वे सिंधु नदी पार करके भारत आए थे, इसलिए उन्होंने इस सिंधु-पर क्षेत्र को हिंदू कह दिया।
भारतीयों ने विदेशियों या मुसलमानों द्वारा दिए गए इस शब्द को स्वीकार कर लिया, क्या यह हमारी उदारता नहीं है? ऐसे में विदेशी मजहबों के मानने वालों को अपना कहने में हमें एतराज क्यों होना चाहिए? यदि इस देश में भारत के 20-22 करोड़ लोगों को हम अपने से अलग मानेंगे तो हम खुद को राष्ट्रवादी कैसे कहेंगे? इस देश को हम मजहब के आधार पर बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक में बांट देंगे। हम राष्ट्रवादी नहीं होंगे बल्कि जिन्नावादी होंगे। दुनिया में पाकिस्तान ही एक मात्र देश है, जो मजहब के आधार पर बना है। पाकिस्तान की ज्यादातर परेशानियों का कारण भी यही है। भारत का निर्माण या अस्तित्व किसी धर्म, संप्रदाय, मजहब, वंशवाद या जाति के आधार पर नहीं हुआ है। इसीलिए इसे सिर्फ हिंदुओं का देश नहीं कहा जा सकता है। हां, इस अर्थ में यह हिंदुओं का देश जरूर है कि जो भी यहां का बाशिंदा है, वह हिंदू है।

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