Sunday, May 19, 2024
देशबुक्स

मृत्यु के समय को लेकर समाधान

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अष्टम अध्याय-12)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
प्रश्न-यहाँ ‘काल’ शब्द का अर्थ ‘समय’ मान लिया जाय तो क्या हानि है?
उत्तर-छब्बीसवें श्लोक में इसी को ‘शुक्ल’ और ‘कृष्ण’ दो प्रकार की ‘गति’ के नाम से सत्ताईसवें श्लोक में ‘सृति’ के नाम से कहा है। वे दोनों ही शब्द मार्गवाचक हैं। इसके सिवा ‘अग्निः’, ज्योतिः’ और ‘धूमः‘ पद भी समय वाचक नहीं है। अतएव चैबीसवें और पचीसवें श्लोकों में आये हुए ‘तत्र’ पद का अर्थ ‘समय’ मानना उचित नहीं होगा। इसीलिये यहाँ ‘काल’ शब्द का अर्थ कालाभिमानी देवताओं से सम्बन्ध रखने वाला ‘मार्ग’ मानना ही ठीक है।
प्रश्न-यदि यही बात है तो संसार में लोग दिन, शुक्ल पक्ष और उत्तरायण के समय मरना अच्छा क्यों समझते हैं?
उत्तर-लोगों का समझना भी एक प्रकार से ठीक ही है, क्योंकि उस समय उस-उस कालाभिमानी देवताओं के साथ तत्काल सम्बन्ध हो जाता है। अतः उस समय मरने वाला योगी गन्तव्य स्थान तक शीघ्र और सुगमता से पहुँच जाता है पर इससे यह नहीं समझ लेना चाहिये कि रात्रि के समय मरने वाला तथा कृष्ण पक्ष में और दक्षिणायन के छः महीनों में मरने वाला अर्चि मार्ग से नहीं जाता। बल्कि यह समझना चाहिये कि चाहे जिस प्रकार मरने पर भी, वह जिस मार्ग से जाने का अधिकारी होगा, उसी मार्ग से जायगा। इतनी बात अवश्य है कि यदि अर्चि मार्ग का अधिकारी रात्रि में मरेगा तो उसका दिन के अभिमानी देवता के साथ सम्बन्ध दिन के उदय होने पर ही होगा, इस बीच के समय में वह ‘अग्निः’ के अभिमानी देवता के अधिकार में रहेगा। यदि कृष्ण पक्ष में मरेगा तो उसका शुक्ल पक्ष अभिमानी देवता से सम्बन्ध शुक्ल पक्ष आने पर ही होगा, इसके बीच के समय में वह दिन के अभिमानी देवता के अधिकार में रहेगा। इसी तरह यदि दक्षिणायन में मरेगा तो उसका उत्तरायणाभिमानी देवता से सम्बन्ध उत्तरायण का समय आने पर ही होगा, इसके बीच के समय में वह शुक्ल पक्षाभिमानी देवता के अधिकार में रहेगा। इसी प्रकार दक्षिणायन मार्ग के अधिकारी के विषय में भी समझ लेना चाहिये।
प्रश्न-यहाँ ‘योगिनः’ पद के प्रयोग का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-‘योगिनः’ पद के प्रयोग से यह बात समझनी चाहिये कि जो साधारण मनुष्य इसी लोक में एक योनि से दूसरी योनि में बदलने वाले हैं या जो नरकादि में जाने वाले हैं, उनकी गति का यहाँ वर्णन नहीं है। यहाँ जो ‘शुक्ल’ और ‘कृष्ण’ इन दो मार्गों के वर्णन का प्रकरण है, वह यज्ञ, दान, तप आदि शुभ कर्म और उपासना करने वाले श्रेष्ठ पुरुषों की गति का ही वर्णन है।
प्रश्न-‘प्रयाताः’ पद का क्या अभिप्राय है? और भगवान् ने यहाँ ‘वक्ष्यामि’ पद से क्या कहने की प्रतिज्ञा की है?
उत्तर-‘प्रयाताः’ पद जाने वालों का वाचक है। जो मनुष्य अन्तकाल में शरीर को छोड़कर उच्च लोकों में जाने वाले हैं, उनका वर्णन करने के उद्देश्य से इसका प्रयोग हुआ है। जिस रास्ते से गया हुआ मनुष्य वापस नहीं लौटता और जिस रास्ते से गया हुआ वापस लौटता है, उन दोनों रास्तों का क्या भेद है, वे दोनों रास्ते कौन-कौन-से हैं, तथा उन रास्तों पर किन-किन का अधिकार है-‘वक्ष्यामि’ पद से भगवान् ने इस सब बातों के कहने की प्रतिज्ञा की है।
अग्निज्र्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः।। 24।।
प्रश्न-‘ज्योतिः‘ और ‘अग्निः’ ये दोनों पद किस देवता के वाचक हैं तथा उस देवता का स्वरूप क्या है? उक्त मार्ग में उसका कितना अधिकार है और वह इस विषय में क्या करता हे?
उत्तर-यहाँ ‘ज्योतिः’ पद ‘अग्निः’ का विशेषण है और ‘अग्निः’ पद् अग्नि-अभिमानी देवता का वाचक है। उपनिषदों में इसी देवता को ‘अर्चिः‘ कहा गया है। इसका स्वरूप दिव्य प्रकाशमय है, पृथ्वी के ऊपर समुद्र सहित सब देश में इसका अधिकार है तथा उत्तरायण मार्ग में जाने वाले अधिकारी का दिन के अभिमानी देवता से सम्बन्ध करा देना ही इसका काम है। उत्तरायण मार्ग से जाने वाला जो उपासक रात्रि में शरीर त्याग करता है, उसे यह रात भर अपने अधिकार में रखकर दिन के उदय होने पर दिन के अभिमानी देवता के अधीन कर देता है और जो दिन में मरता है, उसे तुरंत ही दिन के अभिमनी देवता को सौंप देता है।
प्रश्न-‘अहः’ पद किस देवता का वाचक है, उसका क्या स्वरूप है, उसका कहाँ तक अधिकार है एवं वह इस विषय में क्या करता है?
उत्तर-‘अहः’ पद दिन के अभिमानी देवता का वाचक है, इसका स्वरूप अग्नि-अभिमानी देवता की अपेक्षा बहुत अधिक दिव्य प्रकाशमय है। जहाँ तक पृथ्वी-लोक की सीमा है अर्थात् जितनी दूर तक आकाश में पृथ्वी के वायु मण्डल का सम्बन्ध है, वहाँ तक इसका अधिकार है और उत्तरायण मार्ग में जाने वाले उपासक को शुक्ल पक्ष के अभिमानी देवता से सम्बन्ध करा देना ही इसका काम है। अभिप्राय यह है कि उपासक यदि कृष्ण पक्ष में मरता है तो शुक्ल पक्ष आने तक उसे यह अपने अधिकार में रखकर और यदि शुक्ल पक्ष में मरता है तो तुरंत ही अपनी सीमा तक ले जाकर उसे शुक्ल पक्ष के अभिमानी देवता के अधीन कर देता है।
प्रश्न-यहाँ ‘शुक्लः‘ पद किस देवता का वाचक है, उसका कैसा स्वरूप है, कहाँ तक अधिकार है एवं क्या काम है?
उत्तर-पहले की भाँति ‘शुक्लः‘ पद भी शुक्ल पक्षाभिमानी देवता का ही वाचक है। इसका सवरूप दिन के अभिमानी देवता से भी अधिक दिव्य प्रकाश मय है। भूलोक की सीमा से बाहर अन्तरिक्ष लोक में जिन लोकों में पंद्रह तक इसका अधिकार है और उत्तरायण-मार्ग से जाने वाले अधिकारी को अपनी सीमा से पार करके उत्तरायण के अभिमानी देवता के अधीन कर देना इसका काम है। यह भी पहले वालों की भाँति यदि साधक दक्षिणायन में इसके अधिकार में आता है तो उत्तरायण का समय आने तक उसे अपने अधिकार में रखकर और यदि उत्तरायण में आता है तो तुरंत ही अपनी सीमा से पार करके उत्तरायण-अभिमानी देवता के अधिकार में सौंप देता है।-क्रमशः

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *