Sunday, May 19, 2024
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अर्जुन ने ब्रह्म के बारे में पूछा

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अष्ठम अध्याय-01)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

किं तद् ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते।। 1।।
प्रश्न-‘वह ब्रह्म क्या है?’ अर्जुन के इस प्रश्न का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-‘ब्रह्म’ शब्द वेद, ब्रह्मा, निर्गुण परमात्मा, प्रकृति और आंेकार आदि अनेक तत्त्वों के लिये व्यवहृत होता है; अतः उनमें से यहाँ ‘ब्रह्म’ शब्द किस तत्त्व के लक्ष्य से कहा गया है, यह जानने के लिये अर्जुन का प्रश्न है।
प्रश्न-‘अध्यात्म क्या है? इस प्रश्न का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, जीव और परमात्मा आदि अनेक तत्त्वों को ‘अध्यात्म’ कहते हैं। उनमें से यहाँ ‘अध्यात्म’ नाम से भगवान् किस तत्त्व की बात कहते हैं? यह जानने के लिये अर्जुन का यह प्रश्न है।
प्रश्न-‘कर्म क्या है?’ इस प्रश्न का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-‘कर्म’ शब्द यहाँ यज्ञ-दानादि शुभ कर्मों का वाचक है या क्रिया मात्र का? अथवा प्रारब्ध आदि कर्मों का वाचक है या ईश्वर की सृष्टि-रचना रूप कर्म का? इसी बात को स्पष्ट जानने के लिये यह प्रश्न किया गया है।
प्रश्न-‘अधिभूत’ नाम से क्या कहा गया है? इस प्रश्न का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-‘अधिभूत’ शब्द का अर्थ यहाँ पंच महाभूत है या समस्त प्राणि मात्र है अथवा समस्त दृश्य वर्ग है या यह किसी अन्य तत्त्व का वाचक है? इसी बात को जानने के लिये ऐसा प्रश्न किया गया है।
प्रश्न-‘अधिदैव किसको कहते हैं?’ इस प्रश्न का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-‘अधिदैव’ शब्द से यहाँ किसी अधिष्ठातृ देवता विशेष का लक्ष्य है या अदृष्ट, हिरण्य गर्भ, जीव अथवा अन्य किसी का? यही जानने के लिये प्रश्न किया गया है।
प्रश्न-यहाँ ‘पुरुषोत्तम’ सम्बोधन किस अभिप्राय से दिया गया है?
उत्तर-‘पुरुषोत्तम’ सम्बोधन से अर्जुन यह सूचित करते हैं कि आप समस्त पुरुषों में श्रेष्ठ, सर्वज्ञ, सर्व शक्तिमान, सबके अधिष्ठाता और सर्वाधार हैं। इसलिये मेरे इन प्रश्नों का जैसा यथार्थ उत्तर आप दे सकते हैं, वैसा दूसरा कोई नहीं दे सकता।
अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन।
प्रयाण काले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः।। 2।।
प्रश्न-यहाँ ‘अधियज्ञ’ के विषय में अर्जुन के प्रश्न का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-‘अधियज्ञ’ शब्द यज्ञ के किसी अधिष्ठातृ देवता विशेष का वाचक है या अन्तर्यामी परमेश्वर का अथवा अन्य किसी का? एवं वह ‘अभियज्ञ’ नामक तत्त्व मनुष्यादि समस्त प्राणियों के शरीर में किसी प्रकार रहता है और उसका ‘अधियज्ञ’ नाम क्यो है? इन्हीं सब बातों को जानने के लिए अर्जुन का यह प्रश्न है।
प्रश्न-‘नियतात्मभि;’ का क्या अभिप्राय है तथा अन्तकाल में आप कैसे जानने में आते हैं? इस प्रश्न का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-भगवान् ने सातवें अध्याय के तीसवें श्लोक में ‘युक्त चेतसः’ पद का प्रयोग करके जिस पुरुषों को लक्ष्य किया था, उन्हीं के लिये अर्जुन यहाँ ‘नियतात्मभिः’ पद का प्रयोग करके पूछ रहे हैं कि ‘युक्तचेतसः’ पद से जिन पुरुषों के लिये आप कह रहे हैं, वे पुरुष अन्तकाल में अपने चित्त को किस प्रकार आप में लगाकर आपको जानते हैं? अर्थात् वे प्राणायाम, जप, चिन्तन, ध्यान या समाधि आदि किस साधन से आपका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करते हैं? इसी बात को जानने के लिये अर्जुन ने यह प्रश्न किया है।
अक्षरं ब्रह्म परं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावो˜वकरो विसर्गः कर्म संज्ञितः।। 3।।
प्रश्न-परम अक्षर ‘ब्रह्म’ है, इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-अक्षर के साथ ‘परम’ विशेषण देकर भगवान् यह बतलाते हैं कि सातवें अध्याय के उन्नीतसवें श्लोक में प्रयुक्त ‘ब्रह्म’ शब्द निर्गुण निराकार सच्चिदानंदधन परमात्मा का वाचक है; वेद ब्रह्मा और प्रकृति आदि का नहीं जो सबसे श्रेष्ठ और सूक्ष्म होता है उसी को ‘परम’ कहा जाता है। ‘ब्रह्म’ और ‘अक्षर’ के नाम से जिन सब तत्त्वों का निर्देश किया जाता है, उन सब में सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ और परम एकमात्र सच्चिदानन्दधन परब्रह्म परमात्मा ही है; अतएव ‘परम अक्षर’ से यहाँ उसी परब्रह्म परमात्मा का लक्ष्य है। यह परम ब्रह्म परमात्मा और भगवान् वस्तुतः एक ही तत्त्व है।
प्रश्न-स्वभाव ‘अध्यात्म’ कहा जाता है-इसका क्या तात्पर्य है?
उत्तर-‘स्वो भावः स्वभावः’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार अपने ही भाव का नाम स्वभाव है। जीवरूपा भगवान् की चेतन परा प्रकृति रूप आत्मतत्त्व ही जब आत्म-शब्द वाच्य शरीर, इन्द्रिय, मन-बुद्धियादि रूप अपना प्रकृति का अधिष्ठाता हो जाता है, तब उसे ‘अध्यात्म’ कहते हैं। अतएव सातवें अध्याय के उन्नतीसवें श्लोक में भगवान् ने ‘कृत्स्र’ विशेषण के साथ जो ‘अध्यात्म’ शब्द का प्रयोग किया है, उसका अर्थ ‘चेतन जीव समुदाय’ भी यथार्थ में भगवान् से अभिन्न और उनका स्वरूप ही है।
प्रश्न-भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला विसर्ग-त्याग ही कर्म के नाम से कहा गया है, इसका क्या तात्पर्य है?
उत्तर-‘भूत’ शब्द चराचर प्राणियों का वाचक है। इन भूतों के भाव का उ˜व और अभ्युदय जिस त्याग से होता है, जो सृष्टि-स्थिति का आधार है, उस ‘त्याग’ का नाम ही कर्म है। महा प्रलय में विश्व के समस्त प्राणी अपने-अपने कर्म-संस्कारों के साथ भगवान् में विलीन हो जाते हैं। फिर सृष्टि के आदि में भगवान् जब यह संकल्प करते हैं कि मैं एक ही बहुत हो जाऊँ, तब पुनः उनकी उत्पत्ति होती है। भगवान् का यह ‘आदि संकल्प’ ही अचेतन प्रकृति रूप योनि में चेतन रूप बीज की स्थापना करना है। यही जड़-चेतन का संयोग है। यही महान् विसर्जन है और इसी विसर्जन या त्याग का नाम ‘विसर्ग’ है। इसी से भूतों के विभिन्न भावों का उ˜व होता है। इसीलिये भगवान् ने कहा है-‘संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत।’ ‘उस जड़-चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है।’ यही भूतों का भाव उ˜व है। अतएव यहाँ यह समझना चाहिये कि भगवान् के जिस आदि संकल्प से समस्त भूतों का उ˜व और अभ्युदय होता है, उसका नाम ‘विसर्ग’ है और भगवान् के इस विसर्ग रूप महान् कर्म से ही जड़ अक्रिय प्रकृति स्पन्दित होकर क्रियाशीला होती है तथा उससे महा प्रलय तक विश्व में अनन्त कर्मों की अखण्ड धारा बह चलती है। इसलिये इस ‘विसर्ग’ का नाम ही ‘कर्म’ है। सातवें अध्याय के उन्नीतसवें श्लोक में भगवान् ने इसी को ‘अखिल कर्म’ कहा है। भगवान का यह भूतों के भाव का उ˜व करने वाला महान् यज्ञ है। इससे विविध लौकिक यज्ञों की उ˜ावना हुई है और उन यज्ञों में जो हवि आदि का उत्सर्ग किया जाता है, उसका नाम भी ‘विसर्ग’ ही रक्खा गया है। उन यज्ञों से भी प्रजा की उत्पत्ति होती है। मनुस्मृति में कहा है-
अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते।
आदित्या ज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं। ततः प्रजाः।।
अर्थात् ‘वेदोक्त विधि से अग्नि में दी हुई आहुति सूर्य में स्थित होती है, सूर्य से वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्न होता है और अन्न से प्रजा होती है।’यह ‘कर्म’ नामक विसर्ग वस्तुतः भगवान् का ही आदि संकल्प है, इसलिये यह भी भगवान् से अभिन्न ही है।-क्रमशः

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