Sunday, May 19, 2024
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प्रभु के आश्रित हो जाते जन्म-मरण से मुक्त

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (सप्तम अध्याय-11)

चक है और उनका मोहित होना क्या है?
उत्तर-सच्ची श्रद्धा-भक्ति के साथ भगवान् का भजन करने वाले भक्तों को छोड़कर शेष समस्त जन-समुदाय का वाचक यहाँ ‘सर्वभूतानि’ पद है। उनका जो इच्छा-द्वेष जनित हर्ष-शोक और सुख-दुःखादि रूप मोह के वश होकर अपने जीवन के उद्देश्य को भूलकर भगवान् के भजन-स्मरण की जरा भी परवा न करना और दुःख तथा भय उत्पन्न करने वाले नाशवान् एवं क्षणभंगुर भोगों को ही सुख का हेतु मानकर उन्हीं के संग्रह और भोग की चेष्टा करने में अपने अमूल्य जीवन को नष्ट करते रहना है-यही उनका मोहित होना है।
येषां त्वन्तगतं पापं जानानां पुण्यकर्मणाम्।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः।। 28।।
प्रश्न-यहाँ ‘तु’ के प्रयोग का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-साधारण जन-समुदाय से भगवान् के श्रेष्ठ भक्तों की विशेषता दिखलाने के लिये यहाँ ‘तु’ का प्रयोग किया गया है।
प्रश्न-निष्काम भाव से श्रेष्ठ कर्मों का आचरण करने वाले जिन पुरुषों का पाप नष्ट हो गया है-यह कथन किन पुरुषों के लिये है?
उत्तर-जो लोग जन्म-जन्मान्तर से शास्त्र विहित यज्ञ, दान और तप आदि श्रेष्ठ कर्म तथा भगवान् की भक्ति करते आ रहे हैं तथा पूर्व संस्कार और उत्तम संग के प्रभाव से जो इस जन्म में भी निष्काम भाव से श्रेष्ठ कर्मों का आचरण तथा भगवान् का भजन करते हैं और अपने दुर्गुण-दुराचारादि समस्त दोषों का सर्वथा नाश हो जाने से जो पवित्रान्तःकरण हो गये हैं, उन पुरुषों के लिये उक्त कथन है।
प्रश्न-द्वन्द्व मोह से मुक्त होना क्या है?
उत्तर-राग-द्वेष से उत्पन्न होने वाले सुख-दुःख और हर्ष-शोक आदि द्वन्द्वों के समुदाय रूप मोह से सर्वथा रहित हो जाना, अर्थात् सांसारिक सुख-दुःखादि से संयोग-वियोग होने पर कभी, किसी अवस्था में, चित्त के भीतर किसी प्रकार का भी विकार न होना ‘द्वन्द्व मोह से मुक्त होना’ है।
प्रश्न-‘दृढव्रताः’ का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जो बड़े-से-बड़े प्रलोभनों और विघ्न-बाधाओं के आने पर भी किसी की कुछ भी परवा न कर भजन के बल से सभी को पद दलित करते हुए अपने श्रद्धा-भक्तिमय विचारों और नियमों पर अत्यन्त दृढ़ता से अटल रहते हैं, जरा भी विचलित नहीं होते, उन दृढ़निश्चयी भक्तों को ‘दृढ़व्रत’ कहते हैं।
प्रश्न-भगवान् को सब प्रकार से भजना क्या है?
उत्तर-भगवान् को ही सर्वव्यापी, सर्वाधार, सर्व-शक्तिमान्’ सबके आत्मा और परम पुरुषोत्तम समझकर अपने बाहरी और भीतरी समस्त कर्मों को श्रद्धा-भक्तिपूर्वक उन्हीं की सेवा में लगा देना अर्थात् बुद्धि से उनके तत्त्व का निश्चय, मन से उनके गुण, प्रभाव, स्वरूप और लीला-रहस्य का चिन्तन, वाणी से उनके नाम और गुणों का कीर्तन, सिर से उनको नमस्कार, हाथों से उनकी पूजा सब प्रकार केवल उन्हीं का हो रहना-यही सब प्रकार से उनको भजना है।
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये।
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्।। 29।।
प्रश्न-जरा-मरण से छूटने के लिये भगवान् के शरण होकर ‘यत्न करना क्या है?
उत्तर-जब तक जन्म से छुटकारा नहीं मिलता, तब तक वृद्धावस्था और मृत्यु से छुटकारा मिलना असम्भव है और जन्म से छुटकारा तभी मिलता है, जब जीव अज्ञान जनित कर्म बन्धन से सर्वथा मतुक्त होकर भगवान् को प्राप्त हो जाता है। भगवान् की प्राप्ति सब कामनाओं का त्याग करके दृढ़ निश्चय के साथ भगवान् का नित्य-निरन्तर भजन करने से ही होती है और ऐसा भजन मुनष्य से तभी होता है जब वह सत्संग का आश्रय लेकर पापों से छूट जाता है तथा आसुर भावों का सर्वथा त्याग कर देता है। भगवान् ने इसी अध्याय में कहा है-‘आसुर स्वभाव वाले नीच और पापाी मूढ़ मनुष्य मुझको नहीं भजते; इसीलिये सत्ताईसवें श्लोक में भी भगवान् को न जानने का कारण बतलाते हुए कहा गया है कि रागद्वेष जनित सुख-दुःखादि द्वन्द्वों के मोह में पड़े हुए जीव सर्वथा अज्ञान में डूबे रहते हैं।’ ऐसे मनुष्यों के मन नाना प्रकार की भोग-कामनाओं से भरे रहते हैं, उनके मन में अन्यान्य सब कामनाओं का नाश होकर जन्म-मरण से छुटकारा पाने की इच्छा ही नहीं जागती। ऐसे निष्पाप हृदय पुरुष के मन में ही यह शुभ कामना जाग्रत होती है कि मैं जन्म-मरण के चक्कर से छूटकर कैसे शीघ्र से-शीघ्र परब्रह्म परमात्मा को जान लूँ और प्राप्त कर लूँ। इसीलिये भगवान् कहते हैं कि ‘जो संसार के सब विषयों के आश्रय को छोड़कर दृढ़ विश्वास के साथ एकमात्र तेरा ही आश्रय लेकर निरन्तर मुझको ही मन-बुद्धि को लगाये रखते हैं, वे मेरे शरण होकर यत्न करने वाले हैं।’
प्रश्न-‘तत’ विशेषण के सहित ‘ब्रह्म’ पद किसका वाचक है; ‘कृत्स्र’ विशेषण के सहित ‘अध्यात्म’ पद किसका वाचक है? और ‘अखिल’ विशेषण के सहित ‘कर्म’ पद किसका वाचक है? एवं इन सबको जानना क्या है?
उत्तर-‘तत्’ विशेषण के सहित ‘ब्रह्म’ पद से निर्गुण, निराकार सच्चिदानन्दधन परब्रह्म परमात्मा का निर्देश है। उक्त परब्रह्म परमात्मा के तत्त्व को भलीभाँति अनुभव करके उसे साक्षात् कर लेना ही उसको जानना है। इस अध्याय में जिस तत्त्व का भगवान् से ‘परा प्रकृति’ के नाम से वर्णन किया है एवं पंद्रहवें अध्याय में जिसे ‘अक्षर’ कहा गया है, उस समस्त ‘जीव समुदाय’ का वाचक ‘कत्स्र’ विशेषण के सहित ‘अध्यात्म’ पद है और एक सच्चिदानन्दधन परमात्मा ही जीवों के रूप में अनेकाकार दीख रहे हैं। वास्तव में जीव समुदाय रूप सम्पूर्ण ‘अध्यात्म’ सच्चिदानन्दधन परमात्मा से भिन्न नहीं है, इस तत्त्व को जान लेना ही उसे जानना है; एवं जिससे समस्त भूतों की और सम्पूर्ण चेष्टाओं की उत्पत्ति होती है, भगवान् के उस आदि संकल्प रूप ‘विसर्ग’ का नाम ‘कर्म’ है (इसका विशेष विवेचन आठवें अध्याय के तीसरे श्लोक की व्याख्या में किया गया है) तथा भगवान् का संकल्प होने से यह कर्म भगवान् से अभिन्न ही है, इस प्रकार जानना ही ‘अखिल कर्म’ को जानना है।
साधिभूताधिदैवं मां साध्यिज्ञं च ये बिदुः।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः।। 30।।
प्रश्न-‘अधिभूत’, ‘अधिदैव’ और ‘अधियज्ञ’ शब्द किन-किन तत्त्वों के वाचक हैं और इन सबके सहित समग्र भगवान् को जानना क्या है?
उत्तर-इस अध्याय में जिसको भगवान् ने ‘अपरा प्रकृति’ और पंद्रहवें अध्याय में जिसको ‘क्षर पुरुष’ कहा है, उस विनासशील समस्त जडवर्ग का नाम ‘अधिभूत’ है। आठवें अध्याय में जिसे ‘ब्रह्मा’ कहा है, उस सूत्रात्मा हिरण्य गर्भ का नाम ‘अधिदैव’ है और नवम अध्याय के चैथे, पाँचवें तथा छठे श्लोकों में जिसका वर्णन किया गया है, उस समस्त प्राणियों के अन्तःकरण में अन्तर्यामी रूप से व्याप्त रहने वाले भगवान् के अव्यक्त स्वरूप का नाम ‘अधियज्ञ’ है।
उन्तीसवें श्लोक में वर्णित ‘ब्रह्म’, जीव समुदाय रूप ‘अध्यात्म’, भगवान् का आदि संकल्प रूप ‘कर्म’ तथा उपर्युक्त जडवर्गरूप ‘अधिभूत’, हिरण्य गर्भ रूप ‘अधिदैव’ और अन्तर्यामी रूप ‘अधियज्ञ’-सब एक भगवान् के ही स्वरूप हैं। यही भगवान् का समग्र रूप है। अध्याय के आरम्भ में भगवान् ने इसी समग्र रूप को बतलाने की प्रतिज्ञा की थी। फिर सातवें श्लोक में ‘मुझ से भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है’ बारहवें में ‘सात्त्विक’ राजस और तामस भाव सब मुझसे ही होते हैं, और उन्नीसवें में ‘सब कुछ वासुदेव ही है’ कहकर इसी समग्र का वर्णन किया है तथा यहाँ भी उपर्युक्त शब्दों से इसी का वर्णन करके अध्याय का उपसंहार किया गया है। इस समग्र को जान लेना अर्थात् जैसे परमाणु, भाप, बादल, धूम, जल और बर्फ सभी जल स्वरूप ही हैं, वैसे ही ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ-सब कुछ वासुदेव ही हैं-इस प्रकार यथार्थ रूप से अनुभव कर लेना ही समग्र ब्रह्म को या भगवान् को जानना है।
प्रश्न-‘प्रयाणकाले’ के साथ ‘अपि’ के प्रयोग का यहाँ क्या भाव है?
उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जो वासुदेवः सर्वमिति’ के अनुसार उपर्युक्त प्रकार से मुझ समग्र को पहले जान लेते हैं, उनके लिये तो कहना ही क्या है; जो अन्तकाल में भी मुझे समग्र यप से जान लेते हैं, वे भी मुझे यथार्थ ही जानते हैं, अर्थात् प्राप्त हो जाते हैं। दूसरे अध्याय के अन्त में ब्राह्मी स्थिति की महिमा कहते हुए भी इसी प्रकार ‘अपि’ का प्रयोग किया गया है।-क्रमश

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