Sunday, May 19, 2024
परिचयबुक्स

ईश्वर के सगुण व निर्गुण दोनों रूप दिव्य

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (सप्तम अध्याय-09)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-भगवान् को प्राप्त होना क्या है, भगवान् के आत्र्तादि सभी भक्त भगवान् को कैसे प्राप्त हो जाते हैं एवं इस वाक्य में ‘अपि’ के प्रयोग से क्या भाव दिखलाया गया है?
उत्तर-भगवान् के नित्य दिव्य परमधाम में निरन्तर भगवान् के समीप निवास करना अथवा अभेदभाव से भगवान् में एकत्त्व को प्राप्त हो जाना, दोनों ही का नाम ‘भगवत्प्राप्ति’ है। भगवान् के ज्ञानी भक्तों की दृष्टि में तो सम्पूर्ण जगत् भगवान् का ही स्वरूप है, अतः उनको तो भगवान् नित्य प्राप्त हैं ही; उनके लिये तो कुछ कहना ही नहीं है। जिज्ञासु भक्त भगवान् को तत्त्व से जानना चाहते हैं, अतः उन्हें भी भगवान् का तत्त्वज्ञान होते ही भगवत्प्राप्ति हो जाती है। रहे अर्थाथीं और आर्त, सो वे भी भगवान् की दया से भगवान् को ही प्राप्त हो जाते हैं। भगवान् परम दयालु और परम सुहृद् हैं। वे जिस बात में भक्त का कल्याण होता है जिस प्रकार वह शीघ्र उनके समीप पहुँचता है, वही काम करते हैं। जिस कामना की पूर्ति से या जिस संकट के निवारण से भक्त का अनिष्ट होता हो, मोहवश भक्त के याचना करने पर भी भगवान् उस कामना की पूर्ति अथवा संकट का निवारण नहीं करते और जिसकी पूर्ति से उनमें भक्त का विश्वास और प्रेम बढ़ता है उसी की पूर्ति करते हैं। अतएव
भगवान् के भक्त कामना की पूर्ति के साथ-साथ आगे चलकर, भगवान् को भी प्राप्त कर लेते हैं। इसी भाव से इस श्लोक में ‘अपि’ का प्रयोग किया गया है।
भगवान् का स्वभाव ही ऐसा है कि जो एक बार किसी भी उद्देश्य से भक्ति के द्वारा भगवान् से सम्बन्ध जोड़ लेता है, फिर यदि वह उसे तोड़ना भी चाहता है तो भगवान् उसे नहीं तोड़ने देते। भगवान् की भक्ति की यही महिमा है कि वह भक्त को उसकी इच्छित वस्तु प्रदान करके, अथवा उस वस्तु से परिणाम में हानि होती हो तो उसे न प्रदान करके भी, नष्ट नहीं होती। वह उसके अंदर छिपी रह जाती है और अवकाश पाते ही उसे भगवान् की ओर खींच ले जाती है। एक बार किसी भी कारण से मिली हुई भक्ति अनेक जन्म बीतने पर भी तब तक उसका पिण्ड नहीं छोड़ती, जब तक कि उसे भगवान् की प्राप्ति नहीं करा देती और भगवान् की प्राप्ति होने के पश्चात तो भक्ति के छूटने का प्रश्न ही नहीं रहता; फिर तो भक्ति, भक्त और भगवान् की एकता ही हो जाती है।
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।
परं भावमजान्तो ममाव्ययमनुत्तमम्।। 24।।
प्रश्न-यहाँ ‘अबुद्धयः’ पद कैसे मनुष्यों का वाचक है और भगवान् के ‘अनुत्तम अविनाशी परमभाव को न जानना’ क्या है?
उत्तर-भगवान् के गुण, प्रभाव, नाम, स्वरूप और लीला आदि में जिनका विश्वास नहीं है तथा जिनकी मोहावृत और विषय विमोहित बुद्धि तर्क जालों से सामाष्छन्न है, वे मनुष्य ‘बुद्धिहीन’ हैं। उन्हीं के लिये ‘अबुद्धय‘ का प्रयोग किया गया है, ऐसे लोगांे की बुद्धि में यह बात आती ही नहीं कि समस्त जगत् भगवान् की ही द्विविध प्रकृतियों के परमाधार होेने से भगवान ही सबसे उत्तम हैं, उनमें उत्तम और कोई है ही नहीं। उनके अचिन्त्य और अकथनीय स्वरूप, स्वभाव, महत्त्व तथा अप्रतिमगुण मन एवं वाणी के द्वारा यथार्थ रूप में समझे और कहे नहीं जा सकते। अपनी अनन्त दयालुता और शरणागत वत्सलता के कारण जगत् के प्राणियों को अपनी शरणागति का सहारा देने के लिये ही भगवान् अपने अजन्मा, अविनाशी और महेश्वर स्वभाव तथा सामथ्र्य के सहित ही नाना स्वरूपों में प्रकट होते हैं और अपनी अलौकिक लीलाओं से जगत् के प्राणियों को परमानन्द के महान् प्रशान्त महासागर में निमग्र कर देते हैं। भगवान् का यही नित्य, अनुत्तम और परम भाव है तथा इसको न समझना ही ‘उनके अनुत्तम अविनाशी परमभाव को नहीं समझना’ है।
प्रश्न-मुझे अव्यक्त से व्यक्त हुआ मानते हैं इस वाक्य का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-भगवान् के निर्गुण-सगुण दोनों ही रूप नित्य और दिव्य हैं। वे अपने अचिन्त्य और अलौकिक दिव्य स्वरूप, स्वभाव, प्रभाव और गुणों को लिये हुए ही मनुष्य आदि रूपों में अवतार धारण करते हैं। मनुष्यादि के रूपों में उनका प्रादुर्भाव होना ही जन्म है और अन्तर्धान हो जाना ही परमधाम मन है। अन्य प्राणियों की भाँति शरीर-संयोग-वियोग रूप जन्म-मरण उनके नहीं होते। इस रहस्य को न समझने के कारण बुद्धिहीन मनुष्य समझते हैं कि जैसे अन्य सब प्राणी जन्म से पहले अव्यक्त थे अर्थात् उनकी कोई सत्ता नहीं थी, अब जन्म लेकर व्यक्त हुए हैं; इसी प्रकार यह श्रीकृष्ण भी जन्म से पहले नहीं था। अब वसुदेव के घर जन्म लेकर व्यक्त हुआ है। अन्य मनुष्यों में और इसमें अन्तर ही क्या है? अर्थात् कोई भेद नहीं है। यह भाव दिखाने के लिये ऐसा कहा है कि बुद्धिहीन मनुष्य मुझे अव्यक्त से व्यक्त हुआ मानते हैं।
प्रश्न-यदि यह अर्थ मान लिया जाय कि ‘बुद्धिहीन’ मनुष्य मुझ अव्यक्त को अर्थात् निर्गुण निराकार परमेश्वर को सगुण साकार मनुष्य रूप में प्रकट होने वाला मानते हैं तो क्या हानि है?
उत्तर-यहाँ यह अर्थ मानना उपयुक्त नहीं जँचता, क्योंकि भगवान् के निर्गुण-सगुण, निराकार-साकार सभी स्वरूप शास्त्र सम्मत हैं। स्वयं भगवान् ने कहा है कि ‘मैं अजन्मा अविनाशी परमेश्वर ही अपनी प्रकृति को स्वीकार करके साधुओं के परित्राण, दुष्टों के विनाश और धर्म संस्थापनादि के लिये समय-समय पर प्रकट होता हूँ। अतः उनको बुद्धिहीन मानने पर भगवान् के इस कथन से विरोध आता है और अवतारवाद का खण्डन होता है, जो गीता को किसी प्रकार भी मान्य नहीं है।
प्रश्न-यदि यहाँ इसका यह अर्थ मान लिया जाय कि ‘बुद्धिहीन मनुष्य’ मुझ ‘व्यक्तिमानन्नम्’ अर्थात् मनुष्य रूप में प्रत्यक्ष प्रकट हुए सगुण साकार परमेश्वर को अव्यक्त अर्थात् निर्गुण-निराकार समझते हैं, तो क्या हानि है?
उत्तर-यह अर्थ भी नहीं जँचता है; क्योंकि जो परमेश्वर सगुण-साकार रूप में प्रकट हैं वे निर्गुण-निराकार भी हैं। इसीलिये यथार्थ तत्त्व को समझने वाला पुरुष बुद्धिहीन कैसे माना जा सकता है? भगवान् ने स्वयं कहा है कि मुझ अव्यक्त (निराकार) स्वरूप से यह समस्त जगत् व्याप्त है। अतएवं जो अर्थ किया गया है, वही ठीक मालूम होता है।-क्रमशः

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *