Sunday, May 19, 2024
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मृत्यु पश्चात गति के बारे में कृष्ण ने दिया ज्ञान

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (छठां अध्याय-22)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगांचलितमानसः।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति।। 37।।
प्रश्न-यहाँ ‘अयतिः‘ का अर्थ ‘प्रयत्नरहित’ न करके ‘असंयमी’ क्यों किया गया?
उत्तर-पिछले श्लोक में जिसका मन वश में नहीं है, उस ‘असंयतात्मा’ के लिये योग का प्राप्त होना कठिन बतलाया गया है। वही बात अर्जुन के इस प्रश्न का बीज है। इसके सिवा, श्रद्धालु पुरुष द्वारा प्रयत्न न होेने की शंका भी नहीं होती; इसी प्रकार, वश में किये हुए मन के विचलित होेने की शंका नहीं की जा सकती। इन्हीं सब कारणों से ‘प्रयत्न न करने वाला’ अर्थ न करके ‘जिसका मन जीता हुआ नहीं है।’ ऐसे साधक के लक्ष्य से ‘असंयमी’ अर्थ किया गया है।
प्रश्न-यहाँ ‘योग’ शब्द किसका वाचक है, उससे मन का विचलित हो जाना क्या है? एवं श्रद्धायुक्त मनुष्य के मनका उस योग से विचलित हो जाने में क्या कारण है?
उत्तर-यहाँ ‘योग’ शब्द परमात्मा की प्राप्ति के उद्देश्य से किये जाने वाले सांख्य योग, भक्ति योग, ध्यान योग, कर्म योग आदि सभी साधनों से होने वाले समभाव का वाचक है। शरीर से प्राणों का वियोग होते समय जो समभाव से या परमात्मा के स्वरूप से मन का विचलित हो जाना है, यही मन का योग से विचलित हो जाना है और इस प्रकार मन के विचलित होने में मन की चंचलता, आसक्ति, कामना, शरीर की पीड़ा और बेहोशी आदि बहुत से कारण हो सकते हैं।
प्रश्न-‘योग संसिद्धिम्’ पद किस सिद्धि का वाचक है और उसे न प्राप्त होना क्या है?
उत्तर-सब प्रकार के योगों के परिणाम रूप समभाव का फल जो परमात्मा की प्राप्ति है उसका वाचक यहाँ ‘योग-संसिद्धिम्’ पद है मरण काल में समभाव रूप योग से था भगवान् के स्वरूप से मन के विचलित हो जाने के कारण परमात्मा साक्षात् न होना ही उसे प्राप्त न होना है।
प्रश्न-यहाँ ‘योग से विचलित होने’ का अर्थ मृत्यु के समय समता से विचलित हो जाना न मानकर यदि अर्जुन के प्रश्न का यह अभिप्राय मान लिया जाय कि ‘जो साधक कर्मयोग, ध्यान योग आदि का साधन करते-करते उस साधन को छोड़कर विषय-भोगों में लग जाता है, उसकी क्या गति होती है?’ तो क्या हानि है?
उत्तर-अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते समय भगवान् ने मरने के बाद की गति का वर्णन किया है और उस साधक के दूसरे जन्म की बात कही है? इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ अर्जुन का प्रश्न मृत्यु काल के सम्बन्ध में ही है। इसके सिवा ‘गति’ शब्द भी प्रायः मरने के बाद होने वाले परिणाम का ही सूचक है, इससे भी यहाँ अन्त काल का प्रकरण मानना उचित जान पड़ता है।
कन्चिन्नोभय विभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि।। 38।।
प्रश्न-भगवत्प्राप्ति के मार्ग में मोहित होना एवं आश्रय रहित होना क्या है?
उत्तर-मन की चंचलता तथा विवेक और वैराग्य की कमी के कारण भगवत्प्राप्ति के साधन से मन का विचलित हो जाना और फलतः परमात्मा की प्राप्ति न होना तथा फल की कामना का त्याग कर देने के कारण शुभ कर्म फलरूप स्वर्गादि लोकों का न मिलना ही पुरुष का भगवत्प्राप्ति के मार्ग में मोहित एवं आश्रय रहित होना है।
प्रश्न-छिन्न-भिन्न बादल की भाँति उभय भ्रष्ट होकर नष्ट हो जाने का क्या भाव है?
उत्तर-यहाँ अर्जुन का अभिप्राय यह है कि जीवन भर फलेच्छा का त्याग करके कर्म करने से स्वर्गादि भोग तो उसे मिलते नहीं और अन्त समय में परमात्मा की प्राप्ति के साधन से मन विचलित हो जाने के कारण भगवत्प्राप्ति भी नहीं होती। अतएवं जैसे बादल का एक टुकड़ा उससे पृथक होकर पुनः दूसरे बादल से संयुक्त न होने पर नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है, वैसे ही वह साधक स्वर्गादि लोक और परमात्मा-दोनों की प्राप्ति से वंचित होकर नष्ट तो नहीं हो जाता यानी उसकी कहीं अधोगति तो नहीं होती?
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते।। 39।।
प्रश्न-अर्जुन के इस कथन का स्पष्टीकरण कीजिये?
उत्तर-यहाँ अर्जुन मृत्यु के बाद की गति जानना चाहते हैं। यह एक ऐसा रहस्य है, जिसका उद्घाटन बुद्धि और तर्क के बल पर कोई नहीं कर सकता। इसको वही जान सकते हैं जो कर्म के समस्त परिणाम, सृष्टि के सम्पूर्ण नियम और समस्त लोकों के रहस्यों से पूर्ण परिचित हों। लोक-लोकान्तरों के देवता, सर्वत्र विचरण करने की सामर्थ्य वाले ऋषि-मुनि और तपस्वी तथा विभिन्न लोकों की घटनावलियों को देख और जान सकने की सामर्थ्य वाले योगी किसी अंश तक इन बातों को जानते हैं; परन्तु उनका ज्ञान भी सीमित ही होता है। इसका पूर्ण रहस्य तो सबके एकमात्र स्वामी श्रीभगवान् ही जानते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण के प्रभाव को अर्जुन पहले से ही जानते थे। फिर भगवान् ने अभी-अभी जो चौथे अध्याय में अपने को ‘जन्मों के जानने वाले’ ‘अजन्मा, अविनाशी तथा सब प्राणियों के ईश्वर, गुणकर्मानुसार सबके रचयिता’ और पाँचवें अध्याय के अन्त में ‘सब लोकों के महान ईश्वर’ बतलाया, इससे भगवान् श्रीकृष्ण के परमेश्वरत्व में अर्जुन का विश्वास और भी बढ़ गया। इसी से वह यह कहकर कि- आपके सिवा मुझे दूसरा कोई नहीं मिल सकता जो मेरे इस संशय को पूर्णरूप से नष्ट कर सके, इस सन्देह के समूल नाश करने के लिये तो आप ही योग्य हैं’-भगवान् में अपना विश्वास प्रकट करते हुए प्रार्थना कर रहे हैं कि आप सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सम्पूर्ण मर्यादाओं के निर्माता और नियंत्रणकर्ता साक्षात् परमेश्वर हैं। अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों के अनन्त जीवों की समस्त गतियों के रहस्य का आपको पूरा पता है और समस्त लोक-लोकान्तरों की त्रिकाल में होने वाली समस्त घटनाएँ आपके लिये सदा ही प्रयत्क्ष हैं ऐसी अवस्था में योगभ्रष्ट पुरुषों की गति का वर्णन करना आपके लिये बहुत ही आसान बात है। जब आप स्वयं यहाँ उपस्थित हैं तो मैं और किससे पूछँ और वस्तुतः आपके सिवा इस रहस्य को दूसरा बतला ही कौन सकता है? अतएव कृपापूर्वक आप ही इस रहस्य को खोलकर मेरे संशयजाल का छेदन कीजिये।

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